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(कभी) क्रिया का अनुसरण करनेवाला भाव होता है तो कभी भाव का अनुसरण करनेवाली क्रिया होती है । इस कारण एक-दूसरे की सिद्धि भी एक-दूसरे से होती है।
टिप्पण-१. कभी भाव नहीं होने पर भी उस भाव से होनेवाली क्रिया करने से वैसे भाव आ जाते हैं। जैसे नट को तथा रूप क्रिया करने से तथा रूप भावों को अभिव्यक्त करने की शक्ति प्राप्त होती है। २. यदि क्रियाकर्ता निश्छल भाव से नकल रूप से क्रिया करता है तो वह असली भाव क्रिया में भी परिणत हो सकती है। जैसे आषाढ़भतिजी का भरत-चक्रवर्ती के शीशमहल में अंगदर्शन का अभिनय । ३. इसलिये ‘भाव होगा तो क्रिया होगी ही'
और 'क्रिया होगी तभी भाव होंगे' ऐसी एकान्त मान्यता नहीं बनाना चाहिये। ४. भाव का अभ्यास सबके लिये सरल नहीं है। सभी सूक्ष्म भाव को पकड़ भी नहीं सकते हैं। इसलिये जिनेश्वरदेव ने भाव को उपलब्ध करने के लिये क्रिया का उपदेश दिया है। क्योंकि क्रिया को अधिकांश जन पकड़ सकते हैं। ५. तथारूप क्रिया के करते हुए थोड़े-थोड़े करके भाव बनते जाते है। जैसे सागरचन्द्रमुनि के द्वारा पुरोहित के पुत्र (मेष्यमुनि का पूर्वभव) और अपने भाई के पुत्र राजकुमार को जबर्दस्ती से दीक्षा दिये जाने पर होनेवाले प्रशस्तभाव । ६. शासन क्रिया से ही चलता है। किन्तु क्रिया से भाव का सुयोग साधने का यत्न होना चाहिये । अशुभयोग से निवृत्ति
पवटुंति कसाएणं, जोगा बाहिरए तहा । मिच्छत्त-अव्वयाईओ, णिट्टि च करिज्जए ॥७३॥
कषाय से योग बाहर (अशुभ रूप में) प्रवर्तते हैं। उसी प्रकार (अशुभ क्रिया से कषाय का उदय) भीतर होता है। इसलिये (भीतर की शुद्धि के लिये) मिथ्यात्व, अव्रत आदि की निवृत्ति करना चाहिये।