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टिप्पण-१. कर्मदल के अल्प होने पर जीव व्यवहार राशि में आने में समर्थ होता है। २. दैहिक स्थूलता के साथ ही कषाय भी व्यक्त स्वरूप में आता है। जैसे दबा हुआ रोग देह में चेतना आने पर व्यथित करता हुआ व्यक्त होता है। ३. चारों गति में परिभ्रमण व्यवहार राशि में ही होता है। ४. व्यक्तकषाय में तीव्रता-मंदता परिलक्षित होती है। अतः तीव्र कषाय से दुर्गति का और मंदकषाय से सुगति का बन्ध होता है । ५. देवगति में प्रबल पुण्य उदय होता है। किन्तु वहां भी ईर्षा, द्वेष आदि के कारणों से दुःख का भी वेदन करता है और जन्म-मरण के दुःख तो हैं ही । ६. 'कषायों से दुःख ही होता है,- यह निर्णय हृदय में जल्दी व्यक्त नहीं होता है। ज्ञानी के वचनों से जानता है कि कषाय दुःखद है। किन्तु हृदय में दृढ़ निर्णय प्रकट नहीं होता है । अतः जीव जानता हुआ भी विवेक-विकल है । ७. अविवेकी जीव कषायों को नष्ट करने का लक्ष्य ही नहीं बना सकता । यदि कदाचित् लक्ष्य बना भी लेता है तो उसकी निरन्तर स्मृति नहीं रहती । कदाचित् स्मृति बनी रहती है तो मंदवीर्य के कारण कषायों का क्षय नहीं कर पाता है।
णाह ! जइत्ता ते तं, अप्पविहववं जिणेसरो जाओ। मं पहु ! तुया विणा को, तेहितो मोयए देव ! ॥१॥
हे नाथ ! उनको जीतकर तू आत्म-वैभववान जिनेश्वरदेव हो गया। अतः हे प्रभो ! हे देव! तेरे बिना उनसे मझे कौन छुड़ा सकता है।
टिप्पण-१. कषायाधीन मैं 'कोई कषायों को क्षय कर सकता हैयह मान नहीं पाता हूँ। किन्तु आपकी ओर दृष्टि करता हूँ तो 'कषाय से मुक्ति' पर विश्वास होता है। २. कषायाधीन जीव अनाथ है और अकषायी जीव नाथ हैं । ३. कषाय से आत्म-ऐश्वर्य दबा रहता है। अकषायी जीव का आत्म-ऐश्वर्य प्रकट हो जाता है यह बात आपके