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कहीं प्रभु के लिये एकवचन तो कहीं बहुवचन का प्रयोग समर्पण भाव के प्रवाह में हुआ है ।
सोयंतु भो कसाया ! तह लोलं संहरन्तु धुत्तत्तं । गच्छंतु अज्ज जाओ, जिणभत्तोऽहं सुभत्तिभरो ||६४ ||
हे कषायो ! सुनो! अपनी लीला और धूर्तता संहरण करो । जाओ, आज मैं उत्तम भक्ति से भरपूर जिनभक्त हो गया हूँ ।
टिप्पण – १. जिनदेव के अस्तित्व को मानने का आशय चैतन्य की परमशुद्धि की स्वीकृति है । २. जिनदेव में आस्था होना - कषायजय में आस्था होना है । ३. कषायों की मंदता के बिना जिनदेव के प्रति अभिमुखता ही नहीं हो सकती । ४. जिनदेव के प्रति अभिमुखताके बिना जिनत्व की पहचान नहीं हो सकती । ५. जिनत्व की पहचान होने पर ही वास्तविक परमात्मस्वरूप की पहचान होती है और जिनत्व में आस्था जमती है । ६. जिनत्व में आस्था होने पर कषायों से होनेवाले अनर्थों पर आस्था होती है और कषायों की पूर्णतः यता पर भी । ७. जिनत्व में आस्थावान जिनदेब का परमभक्त बन जाता है । अत: वह जिनदेव के चरण की उपासना से परमशक्ति का उपार्जन कर लेता है । और वह निर्भय होकर कषायों को ललकार सकता है । ८. आत्मा जिस दिन से जिनदेव का परम आस्थावान् होता है, उसी दिन से कषायों को यह सूचना मिल जाती है कि अब यह आत्मा हमारी प्रजा बनकर रहनेवाला नहीं है । किन्तु वे उसे इतने सहज में छोड़ना नहीं चाहते हैं । अत: उनकी लीला और धूर्तता चलती रहती है । ९. जिनभक्त जब पूर्णत: जिनभक्ति में - जिनाज्ञा के पालन में लीन होता है तब कषायों ATM टूट जाता है ।