Book Title: Mokkha Purisattho Part 03
Author(s): Umeshmuni
Publisher: Nandacharya Sahitya Samiti

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Page 333
________________ ( ३१६ ) (हे भगवन् ! ) आपके द्वारा अव्यक्त कषाय से अनादि सहजन मल से लिप्त चैतन्यवाला (मैं) भवसागर में निगोद के बीच सोया हुआ देखा गया। टिप्पण-१. निगोद=अनन्तकायिक जीवों का वास स्थान । अनन्तकायिक एक शरीर में अनन्त जीव हों, ऐसे जीवों की राशि । निगोद के दो भेद सूक्ष्म और बादर । बादरनिगोद जमीकंद आदि । सूक्ष्मनिगोद सारे लोक में ठसाठस भरी हुई हैं । उनमें एक बहुत बड़ी जीवराशि ऐसी है, जिन्होंने अनादिकाल से अभीतक एक भी बादर= स्थूल शरीरी का भव नहीं पाया है। ऐसे जीव-समह को अव्यवहारराशि कहते हैं और जिस जीव समूह ने एक बार भी बादर भव प्राप्त कर लिया है ऐसे जीवों को व्यवहार राशि कहते हैं । यहाँ निगोद से अव्यवहार राशि से प्रयोजन है। २. व्यवहार राशि के सभी जीव अव्यवहार राशि से निकलकर आते हैं । अव्यवहार राशि जीवों का मातृस्थान है। मातृस्थान =अनादि से अभीतक लम्बे समय तक रहने का स्थान । ३. जीवों के छह निकाय में वनस्पतिकाय में ही अनन्तकायिक जीव हैं। अतः निगोद वनस्पतिकायिक जीवों का ही एक उपभेद है । ४. सभी जीव के सदश मैं भी अव्यवहार राशि में था और वहीं आपने अपने ज्ञान से मुझे देखा । क्योंकि निगोद के जीव सर्वज्ञ के ही ज्ञान-गम्य हैं । अनन्त जीवों की, एक शरीर में एक शारिरीरूप में, भिन्न-भिन्न सत्ता सर्वज्ञ-सर्वदर्शी ही जान-देख सकते हैं । ५. खान में धातुओं के साथ लगा हुआ विजातीय द्रव्य सहज होता है, वैसे ही अव्यवहार राशि में जीव के साथ अनादि से सहज = जब से जीव है तब से उसके साथ निष्पन्न कर्ममल है। कर्म का बन्ध बिना कषाय नहीं हो सकता है । अत: अव्यक्त कषाय' अनादि से जीव में है । अव्यक्तकषाय से तथारूप कर्मदल से चैतन्य लिप्त होता है और कर्म भोगते हुए पुनः अव्यक्त कषाय उदय में होता है तथा पुनः उसके अनुरूप कर्मदल का बन्ध होता है । ६. उस समय निगोद ही जीवों

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