Book Title: Mokkha Purisattho Part 03
Author(s): Umeshmuni
Publisher: Nandacharya Sahitya Samiti

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Page 329
________________ ( ३१२ ) टिप्पण-१. कषाय के उदय से योगों का अशुभ रूप में प्रवर्तन होता है और मिथ्यात्व-प्रवृत्ति, अव्रत-प्रवृत्ति आदि होती हैं। वैसे ही कुदेव आदि की पूजा, हिंसा आदि की प्रवृत्ति से भीतर कषाय पुष्ट होता है। २. आत्मा में कषाय का उदय और उससे प्रेरित बाहर प्रवृत्ति । बाहर अशुभ प्रवृत्ति और भीतर उसके निमित्त से कषाय का जोर । साधारण रूप से प्रायः जीवों में ऐसी ही स्थिति रहती है। क्वचित ऐसी भी स्थिति होती है कि भीतर कषाय का उदय, किन्तु बाहर उससे प्रेरित प्रवृत्ति नहीं होती है और बाहर अशभ क्रिया, किन्तु भीतर कषाय का वेदन नहीं होता है। ऐसी स्थितिवाले कोई विरले जीव ही होते हैं। ३. भीतर कषाय किंचित नहीं रहे या आभ्यन्तर करणों से कषाय का क्षय कर दें तो बाहर में योग अपने आप शुभ हो जाते हैं । परन्तु ऐसा करना सबके बस की बात नहीं है। ४. कषाय-जनित बाह्य-प्रवृत्ति से निवृत्ति करके, भीतर में भीतर करणों से कषाय-क्षय का उद्यम किया जा सकता है और साधना का राजमार्ग यही है। उपदेश भी इसी का दिया जा सकता है। ५. मिथ्यात्व, अव्रत आदि की क्रियाओं के परित्याग में भी कषाय-क्षय परिलक्षित नहीं होता है। किन्तु इससे उन क्रियाओं की निवृत्ति निष्फल सिद्ध नहीं होती। क्योंकि बाहर में अशुभ क्रिया न हो, इसीलिये उनकी निवृत्ति की जाती है और बाहर में अशुभ प्रवृत्ति बराबर रुकती है। भीतर में कषाय-क्षय के लिये वह बाह्य निवृत्ति सहायक है। ६. यदि कषाय के क्षय के भाव से बाह्य अशुभ प्रवृत्ति का निरोध किया जाता रहता है तो कभी न कभी कषाय-क्षय के योग्य परिणाम अवश्य ही प्रकट होते हैं। जैसे श्रमण भगवान महावीरदेव के द्वारा तीर्थकरभव और उससे पूर्व के भवों की आराधना से ठेठ तीर्थकर भव में कषायक्षय की भूमिका बनी ।। क्रिया के लिये कषाय नहीं करना तक्खयट्ठा किया अस्थि, ण ताए तं करे कया । णत्थि वयाण भंगो जो, कि कोहस्स पयोयणं ॥७४॥

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