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उस ( कषाय) के क्षय के लिये क्रिया (की जाती) है। इसलिये. उस ( = क्रिया) के लिये उस ( = कषाय) को कभी न करें । क्योंकि जो (अपने ) व्रतों का भंग नहीं है तो क्रोध का क्या प्रयोजन है ?
टिप्पण - १. साधक कभी-कभी सत्क्रियाओं का प्रयोजन भूल जाता है । अत: वह भटक जाता है । वस्तुतः समस्त सत्क्रियाओं का लक्ष्य 'कषायों का क्षय' ही है । २. सत्क्रियाओं के लिए या उनके निमित्त से साधक चारों प्रकार के कषायों का सेवन कर लेता है । अपने साथी सत्क्रियाओं के आराधन में त्रुटि करते हैं या उपासकों की ओर से अज्ञान या भक्तिवश कोई त्रुटि हो जाती है तो कोई साधक उबल 'पड़ते हैं— कलह करते हैं । उस सत्क्रिया से अपने को बहुत बड़ा -समझकर दूसरों को तुच्छ-हीन समझने लगते हैं । आदर-सत्कार पाने के लिये सत्क्रिया का दिखावा करते हैं और अपनी सत्क्रिया के बदले कोई चमत्कार पैदा करने या लब्धियाँ पाने का लोभ करते हैं । ३. स्वयं साधक सत्क्रिया के लिये कषाय- सेवन करे तो उसके व्रतभंग की आशंका रहती है । परन्तु दूसरों की त्रुटि से उसके व्रतों में दूषण पैदा होना संभव नहीं है । अतः अन्य के द्वारा सत्क्रिया से विपरीत प्रसंग उपस्थित होने पर उनपर क्रोध करना वृथा है । इससे वह अपने लक्ष्य से भटक जाता है । ४. सत्क्रिया की परम्परा को विशुद्ध बनाये रखने के लिये भी आक्रोश करना अनुचित है । समझाना अपना कर्तव्य है । जो समझाने से भी मार्ग पर नहीं आ सकता है तो वह आवेश से कैसे सन्मार्ग पर लग सकेगा ? ५. सभी जीव अपने-अपने कर्म के उदय से प्रेरित होते हैं । अतः धैर्य से काम लेना उचित है | आवेश साधक की दुर्बलता है । सत्क्रिया के लिये अन्य कषायों के सेवन से उसका प्रयोजन मारा जाता है ।
९. अन्य उपाय और उपसंहार
कसायरस खयाए वा, उवायण्णे वि वण्णिया । ते सम्मत्त - परकम्मे, तयट्ठा हु सु-साहणा ॥७५॥