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वह (साधक अपने) चित्त में जलता है कि 'हा! (यह) मेरा कैसा वीर्य (=शौर्य, पराक्रम) है ! और हा! हा! (मेरा यह) कैसा उद्यम है कि दोष (मेरा) अभी तक पिंड नहीं छोड़ता है। . ___टिप्पण-अपने दोषों के प्रति अनुताप और अपने प्रति धिक्कार का भाव ही आत्मनिंदा है ।
उज्जुत्तो अप्पनिन्दाए, पच्छातावं करेइ सो।। तेण कसाय - विरत्तो, करणसेढि लम्भइ ॥६॥
आत्मनिंदा में उद्युक्त बना हुआ वह पश्चाताप करता है। जिससे वह कषाय (आदि दोषों) से विरक्त होता हुआ करण और (गुण-) श्रेणि को प्राप्त करता है।
टिप्पण-१. पश्चाताप या पश्चानुताप अर्थात् आत्मा के प्रति धिक्कार भाव उत्पन्न होने पर चित्त में दोषों के प्रति होनेवाला अनुताप का भाव । २. अनुताप से दोषों के प्रति आत्मसंलग्नता टूटती है और उनसे एकदम विलगता के भाव उत्पन्न होते हैं। ३. उन विलगता के भाव के होने पर करण=विशिष्ट प्रकार के अध्यवसाय अपूर्वकरण आदि और गुणश्रेणि की उपलब्धि होती है । ४. श्रेणि के दो भेद उपशम और क्षपक । यहाँ क्षपक श्रेणि से आशय है। साधक का शौर्यमय चिन्तन'दोसा अणाइकालाओ, नच्चाविति ममं सया । . अप्पमत्तो इदाणिं हं, ते छित्ता होमि णिम्मलो' ॥६५।।
'दोष मुझे अनादिकाल से सदा नचाते रहे हैं। मैं अब अप्रमत्त हूँ। अतः इन (दोषों) का क्षय करके (मैं) निर्मल हो जाऊँ।'
__ स्पष्टीकरण-वस्तुतः इस भाव से आत्मनिन्दा का उत्थान नहीं होता है। किन्तु सदागम के अभ्यास से अपने में वीर्योल्लास उत्पन्न