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और पहले के बंधे हुए हों तो क्षय हो जाते हैं। ३. आलोचना से : प्रमुख रूप से माया कषाय का क्षय होता है। ४. आलोचना से जीव सद्गुणों को उपलब्ध करता है। जैसे चण्डरुद्राचार्य के नवदीक्षित शिष्य ने आत्मलोचन करते हुए कषायों को क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। इस द्वार का उपसंहार
वीरियं ताइ वढिता, सज्जो कसाय-हायणे । आराहगो गुणाणं च, दोसाणमवहारगो ॥६॥
उस (-आलोचना) से कषाय-क्षय में सज्ज तत्पर बना हुआ गुणों का आराधक और दोषों का अपहारक होता है। ..
टिप्पण-१. आलोचना से वीर्य= उल्लास शक्ति की वृद्धि होती है। २. वीर्य-उल्लास से शत्रु के सदृश कषायों को क्षय करने की तत्परता होती है। ३. वीर्य से दो कार्य होते हैं-गुणों का पोषण और दोषों का अपहरण ।
६. आत्मनिन्दा द्वार आत्मनिंदा के पूर्व की भाव भूमिका
सद्दहतो जई धम्मं, सव्वभावेण कोरइ । असामत्थं पमाओ य, देति सूलं व पीलयं ॥६१॥ ।
यति साधनों में तत्पर साधु सर्वभाव से धर्म करता है। किन्तु (उसे) अपना असामर्थ्य और प्रमाद (तीक्ष्ण) काँटे के समान पीड़ा देते हैं।
टिप्पण-१. 'यतिधर्म का जिनोपदिष्ट एक भी अंग त्याज्य नहीं है। सभी धर्म-अंग संपूर्ण भाव से करने योग्य है'-ऐसी श्रद्धा