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( ३०३ ) गुण का और दोष निजत्व का आकार ग्रहण कर रहा हो तो उनके नकलीपन को भेदन की शक्ति। इस करण का सूचन सुहुमदिट्टिणा शब्द से होता है। तीसरा करण है-स्मरणशक्ति अर्थात कहाँ, कब, किस प्रकार, किस कारण से दोष सेवन हुआ आदि को याद रखने और याद करने की शक्ति । इसका सूचन झरइशब्द से हुआ है । इन तीनों करणों के अभाव में आलोचना यथार्थ रूप से नहीं हो सकती। ५. आलोच्य विषय से संबन्धित तीन मुद्दे हैंअतीतदर्शन-वर्तमान क्षण से पीछे बीते हुए मुहूर्त, दिवस, रात्रि, पक्ष, चातु
सि और जहाँ से समझ पकड़ी वहाँ तक या आजन्म तक कालावधि का निरीक्षण, अपने कृत दोषों को जानने के लिये करना। इसका सूचन अईयं शब्द से हुआ है। आत्मदर्शन-अपनी आराधना को आत्मा के रूप में देखना । क्योंकि परमागम में आया सामाइए, आया सामाइयस्स अछे अर्थात् 'आत्मा सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का अर्थ है'यह कहा गया है। आराधना को आत्मरूप और आत्मोपलब्धि के हेतु रूप में समझने सेदेखने से उसे निर्दोष बनाने का भाव दृढ़ होता है। आत्मदर्शन का दूसरा आशय है कि अपने भावों का अपनी चर्या का—गृहीत गुणों का पुनरपि पुनः निरीक्षण करना और अपने लक्ष्य को सदैव दृष्टि-समक्ष रखना। इसका सूचन अप्पे शब्द से किया है। आत्मदोष-स्मरण-अपने द्वारा आराधनामें क्या स्खलना हुई—इसे याद करना। क्योंकि हम दोष-सेवन करके प्रायः भूल जाया करते हैं । और यदि याद भी रखते हैं तो उन्हें महान् या बड़प्पन का कार्य समझकर-गौरव का अनुभव करते हैं-दोष रूप में मानते ही नहीं हैं। अतः वे दोष आत्मा में जड़ीभूत हो जाते हैं। किन्तु वे दोष हैं--वे हमारा अधःपतन करते हैं और वे हमारा भला कदापि नहीं करते'--उन्हें इस रूप में याद करने पर वे ढीले पड़ते हैं--आत्मा से दूर होते हैं । इसका सूचनझरइ इक्किक्कं दोसं--वाक्य से किया है। आलोयणा से कृत कार्य
आलोयणाइ णिस्सल्लो, हवित्ता विहरे पहे । ताए य अइयारा जे, अईया ते हणे उजू ॥८॥