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होता है। जब यह वीर्योल्लास सफल नहीं हो पाता है, तब आत्मनिन्दा का उत्थान होता है। यहाँ बीच में इस गाथा को रखने का
आशय यह है कि यह भाव जितना तीव्र होगा, उतना ही तीव्र आत्मनिंदा का भाव होगा।
सो कसायं हणित्तेवं, मोहमेव उ नासइ । खयंगए महामोहे, अण्णं-कम्माण किं बलं ? ॥६६॥
किन्तु वह (शौर्यभाववाला साधक आत्मनिंदा से=गुणश्रेणि पर चढ़ा) इसप्रकार कषाय को हनकर मोह को क्षय कर देता और फिर महामोह के क्षय हो जाने पर अन्य कर्मों का क्या बल (रहता) है ?
टिप्पण-१. आगम वचन है-करणगुण सेढि-पडिवन्ने यणं अणगारे मोहणिज्जं कम्मं उग्याएइ अर्थात् करणगुणश्रेणि-प्रतिपन्न अनगार मोहनीय कर्म के रसादि की घात करके उसे नष्ट करता है। अतः गाथा में वह साधक आत्मनिदा से 'मोह का ही क्षय' करता है—यह कहा गया है। २. मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने के बाद अन्य घातिकर्म अधिक समय तक नहीं टिक सकते हैं। शेष तीन घातिकर्म अन्तमुहूर्त में ही क्षय हो जाते हैं। ३. मृगावतीजी ने आत्मनिन्दा से मोह का क्षय कर दिया। फिर केवलज्ञान प्राप्त किया ।
७. गर्दा द्वार गर्दा की तैयारी
कसायं पबलं णच्चा, चितेइ-'को य तायइ ? पहु - गुरूण मुत्तूण, कोऽस्थि सरणं मम ? ॥६७॥
(वह) कषाय को प्रबल जानकर चिन्तन करता है-'और कौन (मेरी) रक्षा करता है, प्रभु और गुरुदेव के सिवाय मेरे लिये कौन शरण हैं ?