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१. साधकदृष्टि, २. मौन, ३. ध्यान, ४. यथार्थ बुद्धि, ५. सूक्ष्मदृष्टि, ६. स्मरणशक्ति, ७. अतीतदर्शन, ८. आत्मदर्शन और ९. आत्मदोष-स्मरण । पहली बात आलोचक से, दूसरी से छठी तक आलोचना के कारण से और शेष तीन बातें आलोच्य विषय से संबन्धित हैं। २. साहगो शब्द से साधक दृष्टि का सूचन किया है। साधक में 'आराधक हूँ मैं'--यह भाव अवश्य होना चाहिये । 'आराधना का सुफल और विराधना का दुष्फल मझे ही भोगना होगा । आराधना में हुई स्खलनाओं का आलोचन, प्रतिक्रमण आदि नहीं करने पर मेरे इहभव, अगला भव और इसके पश्चात् का भव-यों तीन भव गर्हित होते हैं । अत: मुझे आराधक ही रहना है'--'ऐसे भाव दिल में रमते- रहने पर साधक अपनी साधकता को टिकाये रखने के लिये आलोचना करने के लिये प्रवृत्त होता है। ३. आलोचना के पाँच करणों में दो करण सहायक हैं। जिनसे अन्तर्मुख होकर आलोचना की प्रक्रिया करने में सहायता मिलती है। वे हैं-मौन और ध्यान । मौन के दो अर्थ हैं--सावद्ययोग का त्याग और वाणी-प्रयोग को रोकना । यहाँ दोनों ही अर्थ ग्राह्य हैं। पहले आशय के अनुसार अपनी चलती हई स्खलना को रोक देना और भविष्य में वैसी गलती नहीं करने का भाव बनाना। क्योंकि ऐसा किये बिना त्रुटि का परिशोधन नहीं हो सकता है। दूसरे आशय के अनुसार चिन्तन के लिये चुपचाप हो जाना। क्योंकि ऐसा करने से अन्तर्मुख होने में सहायता मिलती है। ध्यान का अर्थ है--इधरउधर भटकते हुए मन को भटकाव से हटाकर प्रस्तुत विषय में जोड़ना। इससे आलोचना में गहराई आती है। इनका सूचन झाणमोणेहि शब्द से किया है । ४. शेष तीन करण आलोचना को यथार्थ रूप प्रदान करते हैं । यथार्थबुद्धि-गुण-दोष का निर्णय करनेवाली बुद्धि अर्थात् ज्ञान का जो अंश चिन्तनपूर्वक गुण को गण रूप में और दोष को दोष रूप में पहचानता है, उस ज्ञानांश को यथार्थ बुद्धि कहते हैं। इसका संकेत प्रथम-दोसं शब्द से किया है । सूक्ष्मदृष्टि-अत्यन्त तीक्ष्णदष्टि । इसमें तीन विशेषताएँ होती हैं-निर्ममता अर्थात् 'ये दोष मेरे हैं, अतः क्षम्य हैं'--इस भाव का अभाव, गहरी पैठ अर्थात अति गहराई तक पहुँचने की शक्ति और भेदनता-गुण दोष का, दोष