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के कारण होता है । ६. सम्यक्त्व आदि की आराधना को ठाउठाण इसलिये कहा है कि जैसे विश्राम के बाद विश्रामस्थान छूटते हैं, वैसे ही क्षायिक भाव में आगे बढ़ते हुए भी आराधना में प्रयत्नजन्य उपयोग की आवश्यकता नहीं रहती है ।
संज्वलन के क्षय की कठिनता --
हिमालएव आरोहे, संजलण अप्पमायाइ हेऊणि, बहूणि य
खए तहा ।
अवेक्ख ॥ ५४ ॥
हिमालय के आरोहण ( में मार्गदर्शक, साबधानी, विश्रामस्थान, रस्से आदि कई आवश्यक साधनों) के समान संज्वलन के क्षय में ( भी ) वैसे अप्रमाद आदि कई हेतुओं की अपेक्षा रहती है ।
संजलण कसाएण, सेवेड संजमे दोसे,
टिप्पण - १. संज्वलन का क्षय सरल नहीं है । क्योंकि उनके क्षय के पूर्व नोकषायों का क्षय करना होता है । २. चौथे आदि गुण स्थानों में अधिकांश जीव क्षायोपशमिक भाववाले होते हैं । उनका कषायक्षय का उद्देश्य होते हुए भी परिणाम इतने तीव्र नहीं हो पाते हैं । अत: उन्हें संज्वलन के सिवाय अन्य चतुष्कों के क्षय योग्य परिणामों को भी साधना होता है । ३. क्षायोपशमिक भाववालों पर संज्वलनकषाय अपना प्रभाव जमाता रहता है और उनसे दोष सेवन करवाता रहता है । अत: उन्हें आत्म - उपयोग के सिवाय अप्रमाद, विरति आदि कई साधनों की आवश्यकता रहती है । संज्वलनकषाय से होनेवाली जीव की स्थिति -
जस - कंखाइणी हवे ।
देहरागो वि होज्जइ ॥ ५५ ॥
संज्वलनकषाय से यश: कांक्षा आदि हो सकती है । (जीव ) संयम में दोषों का सेवन करता है और देहराग भी हो सकता है | ( इन सब में प्रमाद का हाथ रहता ही है।)