Book Title: Mokkha Purisattho Part 03
Author(s): Umeshmuni
Publisher: Nandacharya Sahitya Samiti

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Page 316
________________ ( २९९ ) के सदृश हैं । क्योंकि कषायों का क्षय ऋजु = सीधे स्थान के आरोहण के समान है । टिप्पण – १. गिरि- आरोही विश्रामस्थान पर इच्छानुसार कम या कुछ अधिक समय तक ठहरकर आगे बढ़ सकता है । वैसे ही कषाय-क्षय के लिये प्रवृत्त साधक भी विश्रामस्थान सदृश लब्ध गुणों में न्यूनाधिक समय तक स्थित रहकर आगे बढ़ सकता है । २. क्षय में प्रवृत्त परिणाम-धारा अधिक बलवती होती है । किन्तु उसके लिये भी आगे के कषायों का क्षय ऋजु-आरोहण के समान ही होता है । ३. अवस्थान स्फूर्ति की उपलब्धि के लिये है । वैसे ही सम्यक्त्व आदि की आराधना भी भाव की स्फूर्ति के लिये है । दुरूहं तं पि अच्चतं तम्हा जीवोऽइसम्म । सिहराओ पडतं व तं तु गुणो वि रक्खइ ॥ ५३ ॥ वह (कषायों के क्षय में आगे) भाव-आरोहण भी अत्यन्त दुरूह है । इसकारण जीव अति थक जाता है । शिखर से गिरते हुए मनुष्य के समान उस (आराधक) को गुण ( में उपयोग ) भी सम्हालता है । टिप्पण - १. गुणों का आलम्बन उनमें उपयोग लगाये रहने से होता है । २. सम्यक्त्व आदि की आराधना में उपयोग लगाने से वह भाव आराधना होती है और भाव-आराधना कषायों को जीव पर आक्रमण करने से रोकती है । ३. कषाय जीव को नीचे गिराते हैं । जैसे पर्वत के शिखर से व्यक्ति गिरता है । वैसे ही क्षायिक भाव के प्रकट नहीं होने पर क्षायोपशमिक भाव में स्थिति जीव श्रमित होकर गिरता है । ४. कषायों को क्षय करने के लिये क्षपक श्रेणि पर आरूढ़ जीव गुणों को उपलब्ध करता हुआ आगे बढ़ता चला जाता है । ५. यहाँ कषाय-क्षय प्रकरण में क्षायोपशमिक भाववाले जीव का art इसलिये किया है कि उसका लक्ष्य भी कषायों के क्षय का ही होता है और उसका कषायों का क्षयोपशम भी क्षय जितना पुरुषार्थ प्रकट नहीं होने

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