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( २९७ ) आलोचना और उपयोग द्वारा प्रलोकना दो प्रकार की (होती है-यह) कही गयी है । (ज्ञान के) उपयोग के द्वारा कषाय में (चेतना) के प्रवर्तन का निरोध करे ।
टिप्पण-१. प्रलोकना के दो भेद--आलोचना-प्रलोकना और उपयोग-प्रलोकना । आलोचना अर्थात् मर्यादापूर्वक आराधनाविराधना का निर्णय करते हुए अपने आपका आलोकन करना। उपयोगप्रलोकना अर्थात् अपने आप पर निरन्तर दृष्टि लगाये रखना। २. इस गाथा में उत्तरार्ध में उपयोग-प्रलोकना की विशेष परिभाषा दी है। प्रस्तुत प्रसंग में उपयोग-प्रलोकना यह आशय है कि अपने आप पर निरन्तर दृष्टि रखते हुए सूक्ष्मकषाय के उदय में चेतना को नहीं बहने देना-जिससे अतिचारों का सेवन नहीं हो। ३. आत्म-उपयोग आराधना की रीढ़ है।
उपयोग-प्रलोकना का विशेष स्पष्टीकरण
अप्पमतो निरिक्खेज्जा, अप्पाणं अप्पदिट्टिणा । चरियाईसु आरोह, अवट्ठाणं सया बुहो ॥४९॥
बुध = समझदार साधक अप्रमत्त होकर आत्मदृष्टि से चर्या आदि में अपने आरोह और अवस्थान का सदा अवलोकन करे।
टिप्पण--१. बुध =साधना की समझ से युक्त साधना की बुद्धि से सम्पन्न ज्ञानी । जबतक 'मैं साधक हूँ-कषायजय के लिये ही मैं साधक बना हूँ'--यह बुद्धि नहीं बनती, तबतक अपने उपयोग को स्थिर बनाने की वृत्ति नहीं बनती है और उस वृत्ति के अभाव में उपयोग को स्थिर करने का आभ्यन्तर पुरुषार्थ नहीं होता। २.अप्रमत्त= उपयोग को इधर-उधर न भटकने देने के लिये सावधान रहना । अप्रमत्तता ही पुरुषार्थ को यथार्थ रूप प्रदान करने में सहायिका होती है। ३. चर्यादि अर्थात् चर्या और गुणआराधना। आरोह-भावों का ऊर्ध्वगमन । अवस्थान=चर्यादि में