Book Title: Mokkha Purisattho Part 03
Author(s): Umeshmuni
Publisher: Nandacharya Sahitya Samiti

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Page 313
________________ ( २९६ ) वस्तुतः अनगार की अप्रमत्तभाव से चर्या ही ऐसी होती है कि जो 'सव्व भयखेमंकरी' के रूप में परिणत हो जाती है। ५. प्रलोकना-द्वार प्रलोकना की परिभाषा चरियं गुण - कत्तव्वं, पगरिसेण पहणं । संतिणा खलियाइच, पलोयणात्ति कित्तिया ॥४७॥ प्रकर्ष विशेष सूक्ष्म रूप से चर्या, गुण (-आराधना), कर्तव्य और शान्तिपूर्वक (अपनी) स्खलनाओं का निरीक्षण करना यह-प्रलोकना कही गयी है। टिप्पण-१. जीवन-चर्या अर्थात् अपना समस्त व्यवहार । गुण= रत्नत्रय । इनकी आराधना ! कर्तव्य =विषम अवस्थाओं में करने योग्य कार्य, अपवाद मार्ग आदि, स्खलित= आराधना में लगे हुए दोष । २. प्रकर्ष प्रेक्षण=आत्माभिमुख होकर सूक्ष्म दष्टि से विशेष रूप से देखना। संतिणा= शान्ति से, इस पद में कई आशय गर्भित हैं। अनाकुल भाव, निष्पक्षभाव, अपयश के भय से होनेवाले खेद का अभाव आदिभाव शान्ति शब्द में गर्भित हैं। ३. अपनी त्रुटियों को देखना सरल नहीं है। अतः उनके निरीक्षण के लिये ही विशेष रूप से शान्तिभाव अपेक्षित है। ४. कीर्तित अर्थात् आगमों के अनुशीलन से प्रलोकना संज्ञा का आविर्भाव हुआ है। प्रलोकना के भेद आलोयणोवओहिं, वुत्ता पलोयणा दुहा । उवओगेण रुभिज्जा, कसायम्मि पवट्टणं ॥४८॥

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