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धर्मश्रद्धा को वेग प्राप्त
. चितंतो एव मासत्ति, साया सोक्खाण नासइ ।
धम्मसद्धा पवड्ढेइ, वेगो तिव्वयमो तया ॥४४॥
इसप्रकार चिन्तन करते हुए शाता-सौख्य की आसक्ति नष्ट हो जाती है और धर्मश्रद्धा की अभिवृद्धि होती है और तब (उसका) वेग तीव्रतम हो जाता है।
पच्चक्खाणावरणं तो, खवित्ता संजमं गहे । चिच्चा आगारधम्मं च, पक्कमइ सिवाय सो ॥४५॥
वह इस (वेग) के बाद प्रत्याख्यानावरण का क्षय करके, संयम को ग्रहण करे और आगारधर्म =गृहस्थधर्म को छोड़कर मोक्ष के लिये पराक्रम करता है।
टिप्पण-१. परिणामों से ही भाव की विशुद्धि होती है । अतः शुद्ध चिन्तन करने योग्य है। २. शाता-सौख्य में उलझे रहना भी एक ग्रन्थि है। उसके लिये बाह्य पदार्थों की आसक्ति बाह्यग्रन्थि और आन्तरिक भावों की आसक्ति आभ्यन्तर ग्रन्थि है । ३. तीव्र धर्मश्रद्धा उस ग्रन्थि का उच्छेदन करती है। ४. धर्मचिन्तन से धर्मश्रद्धा का वेग तीव्र होता है। जैसे पानी का तीव्रतम वेग चट्टानों को तोड़ देता है। वैसे ही धर्मश्रद्धा का तीव्रवेग संवेग को तीव्र करता है और तीव्रतम संवेग प्रत्याख्यानावरण कषाय की चट्टान को तोड़ देता है। ५. प्रत्याख्यानावरण कषाय संयम का प्रधान बाधक कारण है । उस कारण के नष्ट होते ही घर की ममता नष्ट हो जाती है। ६. जिसका ममत्व दूर होता है, वह सरलता से छूट जाता है। अतः साधक गृहस्थ धर्म को छोड़कर मुनि बन जाता है और शेष मुक्ति-बाधक कारणों को क्षय करने को तत्पर हो जाता है।