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धर्मश्रद्धा से आगे के कार्य
कसायं सुहुमं सेसं, नोकसायं तहा सुही । कारणं अइयारस्स, दुक्ख-हेउं खवे जई ॥४६॥
___ बुद्धिमान यति=संयममार्ग में यत्नशील आत्मा अतिचार के कारण रूप अवशिष्ट सूक्ष्मकषाय=संज्वलनचतुष्क, नोकषाय और (शारीरिकमानसिक) दुःखों के हेतु को (धर्मश्रद्धा से) क्षय करने के लिये उद्यम करे ।
. टिप्पण-१. महाव्रतों के सम्यक् रूप से परिणत होने पर सर्वविरति के परिणाम का आविर्भाव होता है। तब संज्वलन कषाय चतुष्क और नव नोकषाय शेष रहते हैं। २. सुही= उत्तम बुद्धि का स्वामी। जो बुद्धि अपने सूक्ष्मतम दोष को भी पकड़ सकती है और उनके परिमार्जन-क्षय के उपायों को योजित कर सकती है, वह उत्तम बुद्धि है। ऐसी उत्तम बुद्धि के स्वामी सर्वविरत आत्मा होते हैं । ३.यति सर्वविरति के परिणामों को उपलब्ध करके, शेष दोषों का क्षय करने के लिये सतत् यत्नशील आत्मा । यति अनगार = गृह का परित्यागी होता है । अतः वे आश्रम, उपाश्रय, स्थानक, मठ आदि की ममता से भी रहित होते हैं। गृह और आश्रयस्थान की ममता आरंभ का कारण बनती है। ४. आरंभ से अशातावेदनीय का बन्ध होता है। अनगार के अशात के बन्ध का अभाव हो जाता है यदि अप्रमत्त होते हैं तो ! ५. दुःख के दो प्रकार-शारीरिक और मानसिक । इन दुःखों का हेतु है-छेदन-भेदन का संयोग आदि। अनगार को इनका अभाव हो जाता है। क्योंकि यति छेदन आदि हेतु रूप कषाय आदि के क्षय का उद्यम करता रहता है। ६. संज्वलन चतुष्क के उदय के कारण और हास्यादि के कारण आराधना में दोष लगने की संभावना रहती है। संज्वलन के कषायादि के निमित्त से ही अतिचारों का सेवन होता है। ७. चतुर्थ चरण का अर्थ होगा-'यति दु:ख के हेतु का क्षय कर सकता है' अर्थात् अनगार समस्त दुखों का नाश करके अव्याबाध सुख को निष्पन्न करता है-ऐसा आगम वचन है।