________________
( २९३ )
उसे हो जाता है । फिर वहाँ के दुःखों और साधनागत दुःखों की मृगापुत्रजी के समान तुलना करता है । ४. अपने दु:ख वेदन की आज की स्थिति से साधक तुलना करता है कि आज तू शाता में आसक्त है, परन्तु पहले तेरी क्या स्थिति थी ? जैसे तेरे अतीत काल में अज्ञ जीव जैसा तेरे प्रति व्यवहार करते थे, वैसी ही भूल का शिकार तू भी हो रहा है । ५. सुख की चिन्ता में सुख नष्ट होता है—यह तू देख !' यह आत्मसंबोधन है।
'पास कि संजमे दुक्ख ? कि अईय-दुहाऽहियं ? दुहं सासय सोक्खाय, सल्ल - उद्धरणं विव' ॥४३॥
'संयम में क्या दुःख है ? यह देख ! क्या ( उसमें) अतीत ( में वेदन किये हुए) दुःख से अधिक ( दु:ख ) है ? ( संयमगत यह) दुःख शाश्वत् सौख्य ( की उपलब्धि) के लिये (अपने चरण में लगे हुए) काँटे के निकालने ( के समय होनेवाले दुःख) के समान है ।'
टिप्पण - १. कषाय के वशीभूत होकर अतीत काल में अनन्त दुःख सहा है । संयम का दुःख उसके सामने कुछ भी नहीं है । २. वर्तमान में भी कषाय के कारण दुःख सहनेवाले के दुःख से संयमगत दुखों की तुलना करो तो भी संयमगत दु.ख नगण्य ही प्रतीत होगा । ३. जबतक काँटा पैरों में रहता है, तबतक दुःख ही होता है । काँटा निकालते समय भी दुःख होता है । किन्तु काँटे से होनेवाले दुःख के सामने उसे निकालते समय का दुःख नगण्य
1
है । वैसे कषाय से होनेवाले दुःख की अपेक्षा कषायों के क्षय के लिये होने वाला दुःख दुःख नहीं है । ४. कषायों का बन्ध होता है -- शाता - सौख्य के लिये । अतः उन्हें छोड़ना हानिप्रद नहीं है । किन्तु शाश्वत् सौख्य को प्राप्त करवानेवाला है । ५. कषायों के क्षय का मार्ग ही -- जिनेश्वरदेवों ने प्रतिपादित किया है । गुणस्थान का क्रम इसी बात को सूचित करता है । ६. संयमआराधना भी कषायक्षय के मार्ग का एक अंश है । ७. साता - सौख्य की आसक्ति ही संयम में बाधक है । और उसी के क्षय हेतु यह चिन्तन है ।