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'तत्थगयं तुम कोई, नेच्छिसु जीव मन्निउं । विस्सरित्ताण तं सव्वं, ते जीवे अवमन्नसि ॥४१॥ 'आउलो साय-सोक्खाण, आउलया उ कि सुहं ? अन्नेसन्तो तुमं तं हि, नाससि-त्ति न पस्ससि ?' ॥४२॥
तब (शाता-सौख्य में आत्मालोचन करते हुए) धर्म-चिन्तन की धारा (प्रकट) होती है, तब उत्कृष्ट धर्मश्रद्धा (उत्पन्न) होती है-'चारों गतियों में परिभ्रमण करते हुए (मैंने) क्या-क्या दुःख नहीं वेदे ?
'शाता-सौख्य में आसक्त बना हुआ आज अपने को राजा के सदृश मानता हूँ। परन्तु नरक और एकेन्द्रिय आदि के भवों में तुझ दीन को कौन पूछता था ?--(यह देख !)
'वहाँ (एकेन्द्रिय जाति आदि में) रहे तुझको कोई जीव मानने को (भी) तैयार नहीं था (अतः तेरा निर्दयता से वध होता था)। (अब तेरी भी क्या दशा है ?) तू उन सभी बातों को भूलकर (अपने शाता-सौख्य के लिये) उन्हीं जीवों की अवमानना करता है।
'तू शाता-सौख्य के लिये आकुल है तो (हे आत्मन् ! ) क्या आकुलता सुख है ? तू (उसकी) खोज करता हुआ उसको ही नष्ट करता है-यह नहीं देखता है।'
टिप्पण-१.इन गाथाओं में धर्मचिन्ता का स्वरूप बताया है। २. जिनेश्वरदेव के वचनों पर परम श्रद्धा के कारण साधक उनके द्वारा प्रतिपादित जीव-स्वरूप के अनुसार आत्मचिन्तन करता है। वह अपने आस-पास के वातावरण का निरीक्षण करते हुए तत्त्वज्ञान का परमविश्वासी बन जाता है और उसे प्रतीत होने लगता है कि सचमुच में मैं चारों गतियों में परिभ्रमण करते हुए यहाँ मनष्य जन्म पाया हूँ । ३. 'मैंने चारों गतियों में परिभ्रमण किया है तो मैंने तत्रगत दुःखों का भी वेदन अवश्य किया है'--यह श्रद्धान भी