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आलोचना का स्वरूप
पमायाओsसुहा जोगा, उवओगो वि खंडिओ ।
पस्सणं तेसि दोसाण, आलोयणात्ति वुच्चइ ॥ ५६ ॥
प्रमाद से योग अशुभ हो जाते हैं और (आत्म -- ) उपयोग भी खण्डित हो जाता है । उन दोषों का निरीक्षण करना -- जिनेन्द्रदेवों के द्वारा आलोचना कही गयी है ।
टिप्पण - १. संज्वलन के सिवाय अन्य कषायों के उदय से भी यशोवांछा आदि होते हैं । यह तीव्र कषाय की बात हुई । किन्तु संज्वलन जैसे मंदकषाय से भी यशोवाञ्छा होने लग जाती है और इसप्रकार तीन चौकड़ियों को जीत लेनेवाला भी लोकंषणा के चक्कर में पड़ जाता है । २. संज्वलन का नियन्त्रण नहीं कर पाने से महाव्रतों में भी दोषों का सेवन प्रारम्भ हो जाता है । इस मंदकषाय के उभड़ने पर देह में भी राग हो जाता है । जिससे अन्य राग भी आ घुसते हैं । ३. इन कार्यों में प्रमाद का बहुत बड़ा हाथ रहता है । कषायों के प्रति सावधानी नहीं रखने के कारण विषय-प्रमाद और विकथाप्रमाद भी हमला कर देते हैं । देहराग के कारण निद्राप्रमाद खुलकर खेलने लगता है । ४. प्रमाद के कारण योगप्रवृत्ति अशुभ हो जाती है और उपयोग-प्रलोकना की धारा भी खण्डित हो जाती है । ५. साधक यदि सच्चा साधक है तो उसे अपनी स्खलनाओं को देखने की इच्छा होती है । स्खलना-दर्शन की आकांक्षा से ही आलोचना का उद्भव होता है ।
आलोचना की विधि -
अईयं मोण शाह, अप्पे पासइ साहगो । दोसं शरइ इक्किकं, दोसं सुहुम-दिट्टिणा ॥५७॥
साधक मौन और ध्यान से आत्मा में अतीत = गये हुए ( विराधना के ) समय को देखता है और सूक्ष्मदृष्टि से एक-एक दोष को दोष रूप में स्मरण करता है ।
टिप्पण - १. इस गाथा में आलोचक, आलोचना के कारण और आलोच्य विषय से संबन्धित नव बातों का संकेत किया गया है । यथा