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हैं, । साधारण समय में किये गये उपसर्गों का, यदि पूरे समूह पर किये जाते हों और वे निवारण के योग्य हों, तो समुचित उपायों से निवारण करते हैं। ८. साधारणतः संसारी जीवों को साधु-जीवन परीषहों और उपसर्गों से भरा हुआ प्रतीत होता है। वस्तुतः कष्ट तो प्रायः प्रत्येक जन के जीवन में आते ही हैं । किन्तु संयमी-जीवन में आनेवाले कष्टों को समभाव से सहना ही होता है। ९. साधु-जीवन में परीषह-उपसर्गों के सिवाय भी अपने तपसंयम की आराधना के लिये भी अभाव को स्वीकार करना होता है और सुकुमारता तथा सुखशीलता का परित्याग करके प्राप्त सुखों का परित्याग करना होता है--कष्ट सहने पड़ते हैं । अतः साधुजीवन घोरय=भयंकरता से परिपूर्ण लगता है। १०. अविरत समदृष्टि और देशविरत साधक उन कष्टों का चिन्तन करके, अपनी शक्ति को तौलता है । उन्हें कष्ट भारी लगते हैं और अपना सामर्थ्य अल्प । ११. 'मुझे कष्ट असह्य लगते हैं।' –'मैं कष्ट नहीं सह सकता हूँ' आदि संशय उनके हृदय में बने ही रहते हैं । 'संयम ग्रहण करूँ और नहीं पला तो !' ऐसा विराधना का भय भी बना रहता है। १२. सामर्थ्य की कमी, संशय की विपुलता और विराधना के भय के कारण, 'संयम ग्राह्य और प्रिय' होते हुए भी ग्रहण करने के लिये कदम आगे नहीं बढ़ा सकते। इसी बात को स्पष्ट करते हैं--
संसय-दोलिओ चित्तो, पच्छा पच्छा हि पेहइ । नियमं गहिउं किपि, भंगभया न सक्कइ ॥३७॥
(इसप्रकार) संशय में झुलते हुए चित्तवाला पश्चात् - पश्चात् (-पीछे-पीछे या बाद में करने की बात) ही देखता है या सोचता है और (नियमों के) भंग हो जाने के भय से कुछ भी नियम ग्रहण करने में समर्थ नहीं हो पाता है।
टिप्पण-१. आत्मबल में शंकाशील आराधना का प्रारंभ नहीं कर सकता है। २. पन्छा-पच्छा के दो अर्थ-नियमों से दूर-दूर रहना और