________________
। २८९)
- 'पाप सदैव नहीं करने योग्य है । उस (पाप) से मुक्त साधु-जीवन है। (वह साधुजीवन) (जीव को) मोक्ष के उपादान (रूप में परिवर्तित) करता है और सिद्धत्व के प्रार्थी के द्वारा ग्राह्य है।
'परीसहोवसग्गेहि, भरियं तं तु घोरयं । अहं सहिउ सक्को मि, न वत्ति - बहुसंसयो' ॥३६॥
'किन्तु वह (साधु जीवन) अति घोर और परीषहों तथा उपसर्गों से भरा हुआ । मैं (उन कष्टों को) सहने के लिये समर्थ हूँ अथवा नहींइसमें बहुत संशय हैं।'
टिप्पण-१. सम्यग्दृष्टि आत्मा निष्पाप जीवन को ही अपने लक्ष्य की उपलब्धि में हेतु रूप मानता है। २. निष्पाप जीवन साधु का साधुत्व ही है । ३. जीव की शुद्ध पर्याय सिद्धत्व है। ऐसे सिद्धत्व के आकांक्षी के लिये तो पाप अकरणीय ही है। ४. सया शब्द से यह ध्वनि निकलती है कि सुखाभिलाषी किसी भी जीव के लिये पाप करने योग्य नहीं है। ५. साधुत्व ही सिद्धत्व की उपलब्धि की योग्यता उत्पन्न करता है। यही उपादान को तैयार करना है। ६. मोक्षमार्ग पर चलते हुए आनेवाले जिन कष्टों को कर्मनिर्जरा के लिये सहना आवश्यक है, उन्हें परीषह कहते हैं । क्षुधा, तृषा आदि बाईस परीषह हैं । साधना मार्ग पर चलते हुए जो कष्ट किसी के द्वारा आते हैं, वे उपसर्ग हैं । वे तीन प्रकार के हैं--देवकृत, मनुष्यकृत और तिर्यञ्चकृत । ७. परीषह और उपसर्ग तो संसार में भी आते हैं । परन्तु कर्म निर्जरा के लिये उन्हें सहना चाहिये-ऐसी बुद्धि संसारी जीवों में नहीं होती है। वे उचित-अनुचित उपलब्ध सभी उपायों से उनका प्रतिकार करते हैं। संयमीजन संयममार्ग के अनुकूल उपायों से ही, आवश्यक (=संयमयात्रा के निर्वाह के लिये जरूरत) हो तो निवारण करते हैं । किन्तु कायोत्सर्ग प्रतिमा आदि योगानुष्ठान का सेवन करते हुए किये गये उपसर्गों का निवारण साधक आत्मा प्रायः नहीं करता है और न अनुष्ठानों का ही परित्याग करता