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क्षीण होता है। ३. प्रत्याख्यानावरणचतुष्क के उदय में मर्यादित भोगों की आसक्ति का परित्याग नहीं कर पाता है और उनके लिये आरंभ करता है। इस कषाय के जाने पर भोगवत्ति नहीं रहती। मात्र संयमयात्रा के निर्वाह के लिये शरीर को टिकाने हेतु पदार्थों का ग्रहण होता है । परन्तु तत्संबन्धी असावधानी के कारण निरवद्य पदार्थों के सेवन में भी रस पैदा हो जाता है। वह विषयों के लिये आरंभ तो नहीं करता, किन्तु भाव आरंभमय हो जाता है। ४. आरंभ ही संसार का मार्ग है। अतः अंशतः आरंभत्याग से भी संसार मार्ग विच्छिन्न हो जाता है। ५. आरंभ का त्याग ही व्यावहारिक मोक्षमार्ग है अर्थात् आरंभ के त्याग के बिना मोक्षमार्ग पर गमन संभव नहीं है। इसलिये देशविरत आत्मा भी अंशतः आरंभत्याग से मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होता है और फिर उस पर गमन करता है।
४. धर्मश्रद्धा द्वार
धर्मश्रद्धा बलवधिनी--
जह सत्तीइ कोरंतो, सव्वं चायं तु भावइ । धम्मस्स तिव्वसद्धाए, वड्ढावेह नियं बलं ॥३२॥ (देशविरत) यथाशक्ति त्याग करता हुआ (और अविरत समदृष्टि आत्मरुचि करता हुआ) सर्वत्याग=सर्वविरति की भावना करता है और तीव्र धर्मश्रद्धा से आत्मबल की वृद्धि करता है।
टिप्पण-१. संवेग के साथ ही धर्मश्रद्धा उत्पन्न होती है। वस्तुतः संवेग से ही धर्मश्रद्धा उत्पन्न होती है। किन्तु वह संवेग सम्यक्त्व का लक्षण नहीं बन पाता है। परन्तु धर्मश्रद्धा के उत्पन्न होने पर संवेग सम्यक्त्व का लक्षण बन जाता है । २. संवेग से धर्मश्रद्धा उत्पन्न होती है और उससे संवेग तीव्र बनकर धर्म के अंगरूप में परिणत होता है। ३. धर्मश्रद्धा अर्थात् जिनेन्द्रदेव के द्वारा उपदिष्ट सर्वविरति में अटल विश्वास । धर्मश्रद्धा से