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लिया है अर्थात् आरंभ-त्याग के पूर्व की भाव-भूमिका की सूचक यह गाथा है । अनुबंध के बाद के च शब्द से दुःखफलवाला आशय ग्रहण किया है अर्थात् भोग के पश्चात् शक्ति आदि के ह्रास के कारण रोग, निराशा आदि दुःख रूप फल उत्पन्न होते हैं । ५. चौथे पद में भोग दुःखादि फलवाले क्यों होते हैं - इसका कारण दिया है - आरंभयं = आरंभज - भोग हिंसा, झूठ आदि
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पापों से उत्पन्न होते हैं । उनके उत्पादन और भोग में अत्यधिक जीवों का उपमर्दन होता है । हिंसादि आरंभ अशाता के बन्ध के कारण ही हैं । ६ जीव दुःख से डरता है । उसे दुःख उत्पादक कोई वस्तु पसंद नहीं है । अतः जब जीव 'आरंभ से दुःख उत्पन्न होता है और भोग के समय और पहले यह आरंभ होता है - यह जानता है, तब उसे तत्काल ही आरंभ के त्याग की बुद्धि उत्पन्न होती है । फिर वह पुनः पुनः इस बात का चिन्तन करता है - भाव शब्द से यह सूचित किया है । ७. इसप्रकार भाव साधुत्व और भाव श्रावकत्व की भूमिका निष्पन्न होती है ।
निर्वेद से निष्पन्न त्यागरूप फल
एवं मुणिय मुच्चंतो, पुण रई जए चए ।
चिच्चा किंचि वि आरंभ, सत्तीए धारए वयं ॥ ३० ॥
इसप्रकार (भोगों का स्वरूप ) जानकर ( उनसे ) छुटता हुआ, फिर ( भोगों में ) रति ( के त्याग ) की यत्ना कर सकता है और ( क्रमशः) त्याग सकता है | ( अतः ) वह किंचित् भी ( या समस्त ) आरंभ को त्याग कर शक्ति के अनुसार व्रत धारण करता है ।
टिप्पण -- १. कषायों के अंश छुटते ही ज्ञान विरति रूप फल प्रदान करने में समर्थ हो जाता है । २. ज्ञान ही भोगों को त्यागने की प्रवृत्ति करवाता है । उनमें रति- आनन्दमयी वृत्ति के शोषण का यत्न प्रारंभ होता है । ज्ञान भोग के समय उपयुक्त होने लगता है । अतः भोग में रस मंद होने लगता है। रस को मंद करने का अभ्यास करना ही - रति में यत्ना है । ३.