________________
( २८२ )
क्षणभर भी नहीं टिक पाया। ४. तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति में ही जीव भोग भोग सकता है, नरकगति में नहीं । तृष्णा भोग भोगने की इच्छा भोगों के भोग लेने पर भी तीनों गतियों में मौजूद रही और अद्यापि पर्यन्त बनी हुई है।
'भोगा ते एव तिण्हा वि, सा एव मोहिओ कहं ? . अग्गि-पाणेण वा तत्तो, पावे किं ण चएमि ते ॥२७॥
भोग वे ही (हैं) और तृष्णा भी वही है। फिर भी (मैं) मोहित कैसे हूँ ? (भोगो में मैं) अग्नि-पान से तृप्त के समान ही (तप्त हूँ)। फिर भी उन पापों=अशुभ भावों को क्यों नहीं छोड़ता हूँ ?
... टिप्पण-१. अनन्त ज्ञानियों के वचन से और फिर अपने चिन्तन से यह समझा है कि न भोग नये हैं और न भोगवत्ति ही नयी है। २. जीव यह जानकर भी भोगों में क्यों आसक्त है ? उनमें क्यों मोहित होता है ?-यह आश्चर्य है। ३. उबलते हुए पदार्थ का पान करने पर कितनी पीड़ा होती है ? फिर अग्नि-पान के उत्ताप का माप निकालना ही कठिन है। ऐसा ही उत्ताप विषयतृष्णा का है। किन्तु मोहमुग्ध जीव का उस उत्ताप की तरफ ध्यान नहीं है। वह विषय सूख में ही मग्न है।
निर्वेद से कषाय के दो चतुष्कों का क्षय--
___ इइ चिताइ निव्वेओ, तिव्वयरो जया भवे । - अपच्चक्खाण-पावं वा, तईयंपि खवेइ य ॥२८॥
इसप्रकार के चिन्तन-प्रवाह से जब निर्वेद तीव्रतर (अथवा तीव्रतम) हो जाय, तब अप्रत्याख्यान (कषायचतुष्क) पाप अथवा तृतीय चतुष्क= प्रत्याख्यानावरण कषाय को क्षय करता है।