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ज्ञानी का भोगासक्ति पर पश्चाताप
'नारंभेण विणा भोगा, आरंभेण य दोग्गई । तत्थ दुक्खं च संकेसो, एवं भवेसु भामणं ॥२५॥
आरंभ (=जीव हिंसा आदि) के बिना भोग नहीं (होते) हैं और आरंभ से दुर्गति होती है । वहाँ (=दुर्गति में) दुःख और संक्लेश (=अशुभ परिणाम) होते हैं । इसप्रकार भवों में परिभ्रमण होता है।
टिप्पण-१. भोग का उत्पादन आरंभ के बिना नहीं होता है और उनका परिभोग भी अनारंभ से नहीं होता। २. हिंसा आदि पापों के कारण जीव की दुर्गति होती है। ३. दुर्गति नरक आदि बुरी गति और दुर्दशा । यहाँ दोनों ही अर्थ ग्राह्य हैं। ४. दुर्दशा और नरक आदि बुरी गति में दुःख और अशुभ परिणाम दोनों ही होते हैं। ५. अशुभ परिणामो के कारण इस भव में और परभव में भी भटकना पड़ता है।
'किं विसेसो य भोगेसु ? ते ते भुत्ता पुणो पुणो ।
णेव तित्ती सुहं णेव, तिल्हा तिसु गईसु सा' ॥२६॥
भोगों में क्या विशेष (= वैभिन्न्य या नावीन्य) है। (मेरे द्वारा) बार-बार वे वे (ही) भोगे गये हैं। (उनमें) न तो तृप्ति ही हुई और न सुख ही हुआ और वह (भोग-) तृष्णा तीनों गतियों में (ज्यों की त्यों बनी रही) है।
टिप्पण-१. मोहदशा के कारण भोगों में नवीनता प्रतीत होती है। २. उन्हीं-उन्हीं पदार्थों को अनन्त बार भोगा है । क्योंकि एक परमाणु भी नया पैदा नहीं होता। जीव भी अनादि से हैं। अतः पुनरपि पुनः उन्हीं पदार्थों को जीव ने भोगा है। ३. उन्हीं भोगों को भोगने पर भी मोह के कारण कभी तृप्ति का अनुभव नहीं हुआ। क्योंकि भुक्त भोगों का सुख