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भोग-रस की मंदता के पुनः-पुनः अभ्यास से उसमें रति का परित्याग होता . है। बोधि जितनी तीव्र होती है, भोगवृत्ति उतनी ही क्षीण होती है । ४. बोधि की तीव्रता से अपने आप पर अनुकम्पा उत्पन्न होती है। उस अनुकम्पा से पर-अनुकम्पा के भाव पैदा होते हैं । 'आरंभ अपने लिये ही घातक है'इस भाव से आरंभ त्याग की भावना होती है । ५. शक्ति=द्वितीय चतुष्क के क्षय से या द्वितीय और तृतीय चतुष्क के क्षय से उत्पन्न आत्मबल । उसके अनुरूप अंशतः आरंभत्याग से देशविरति-अणुव्रत और पूर्णतः आरंभत्याग से सर्वविरति-महाव्रत का ग्रहण होता है।
निर्वेद से मोक्षमार्ग पर गमन
सव्वेसु चेव भोगेसु, विरज्जइ मणे जओ । छिदित्ता भव-मग्गं च, मोक्खमग्गं पवज्जइ ॥३१॥
(देशविरत जीव) (मनोरथ आदि के) अभ्यास से मन में समस्त भोगों से विरक्त हो जाता है। वह (अंश रूप से भी आरंभ के त्याग से) संसारमार्ग का उच्छेदन कर देता है और (सर्वविरति की भावना से देशविरति को ग्रहण करके) मोक्षमार्ग पर गमन करता है।
टिप्पण-१. कषायों का विषय-प्रवृत्ति से संबन्ध है। अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय में विषयों का राग अच्छा लगता है। इस कषाय के जाने पर विषयों का राग खटकने लगता है। अप्रत्याख्यान चतुष्क के उदय में जीव भोग में आनन्द का अनुभव करता है। भोगों के त्याग की रुचि होते हुए भी भोग-प्रवृत्ति में कटौती नहीं होती है। अप्रत्याख्यानचतुष्क के जाने पर निर्वेद तीव्र होता है। अतः अंशतः भोगों का त्याग करता है और सभी भोगों में विरक्ति हो जाती है। २. प्रवृत्ति में समस्त भोगों का त्याग नहीं हो पाता । भोगों में से ही कषाय की तीव्रता होती है और कभी-कभी भोग ही कषाय की उत्पत्ति में हेतु बनते हैं । अतः भोग में विरक्ति से कषायों में मन्दता अवश्य होना चाहिये । क्योंकि उनकी मंदता से ही तो भोगरस