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( २१८ ) 'मैं विकार नहीं हूँ, किन्तु ज्ञान-दर्शन ,लक्षणवाला आत्मा हूँ'-ऐसा चिन्तन करके, सदा उपयोग में स्थिर रहता हुआ आत्मा में अवश्यमेव रत हो जाये।
टिप्पण--१. यह आत्मदर्शन अध्यात्म-साधना की रीढ़ है। २. आगम के उत्तर काल में जैनधर्म में आगम के कुछ मुद्दों के आधार पर अध्यात्मदर्शन खड़ा हुआ । ३. अध्यात्मदर्शन ने निश्चय नय को प्रधानता दी । और व्यवहार को निश्चय से प्रतिषिद्ध माना । व्रत के विकल्प बंध के हेतु हैं क्योंकि व्रत शुभभाव रूप हैं और शुभभाव पुण्यात्रव रूप है। इसलिए व्रत आदि पुण्यबंध के हेतु हैं । उन्होंने उपयोग के तीन रूप निश्चित कियेअशभ उपयोग, शुभ उपयोग और शुद्ध-उपयोग । ये तीनों क्रमश: पाप, पुण्य और मोक्ष के हेतु हैं । आगमदृष्टि से उपयोग कर्मबन्ध का हेतु नहीं है। क्योंकि उपयोग तो क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव से निष्पन्न होता है। अत: उपयोग विकारी पर्याय-विकार नहीं है और कर्मबन्ध का हेतु भी नहीं है। तभी तो उपयोग (=ज्ञातादृष्टा भाव) में स्थित रहने पर संवर हो सकता है। उसी शुद्ध उपयोग की बात गाथा में कही गयी है। उसी को यहाँ आत्मदर्शन कहा है। ४. तीव्र रागद्वेष से अनुरंजित उपयोग अशुभ, मंदकषाय से अनुरंजित उपयोग शुभ और रागद्वेष के विकल्प से रहित उपयोग शुद्ध है। ५. 'मैं विकार नहीं हूँ, ज्ञानदर्शनमय आत्मा हूँ'--यह शुद्ध उपयोग का स्वरूप है। 'मैं ज्ञाता-दृष्टा आत्मा हूँ'-इस भाव में स्थित रहना-यह शुद्ध उपयोग का अभ्यास है। इस भाव से कषाय अनात्मस्वरूप है--यह सिद्ध होता है। अतः कषायों में रत रहना--अनात्मरमण है। कषायों के उदय में उपयोग को नहीं बिखरने देना--यह उपयोग में स्थिर रहना है। ६. अपने ज्ञाता-दृष्टा भाव को सदा बराबर बनाये रखने से आत्मरमणता होती है। 'खु' शब्द से यह निश्चय होता है कि स्व-उपयोग में स्थिर रहने से आत्मा में ही रमणता होती है। ७. आत्मदर्शन कषायजय का प्रधान साधन है।