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आज्ञा-खण्डन-पालन के कारण
मय - माण - कसाएहिं, आणं गुरूण खंडइ । जइ हिट्ठो य आणाए, जीवो ते चेव नासइ ॥५१॥
(वह) मद-मान कषायों से गुरु की आज्ञा को खण्डित करता है और यदि जीव (गुरु) आज्ञा में हर्षित होता है तो उन्हीं (कषायों) को (वह) नष्ट करता है।
टिप्पण-१. जाति आदि के मद, लोगों से प्राप्त यश आदि रूप मान और ऋद्धि आदि गौरवों से जीव गुरु आज्ञा से विमुख होता है । २. क्रोधादि के कारण भी गुरु में अप्रीति उत्पन्न होती है और आज्ञा की अवहेलना होती है । ३. स्वच्छन्दता से कषाय की उत्पत्ति और पुष्टि होती है तो कषाय से आज्ञा भंग । ४. गुरु-आज्ञा में हर्ष होने पर स्वच्छन्दता का निरोध होता है । अतः आशा-भंजक कषाय ही भम्न होने लगता है ।
आज्ञा-प्राप्ति पर उत्तम भाव धारण करना--
आणं सुणिय मन्निज्जा-'धन्नोऽहं किच्च जं किवं । आणवेइ सुदिट्ठीए, वसामि तं सुहं परं' ॥५२॥
(गुरुदेव की) आज्ञा सुनकर (यह) मानें कि-'मैं धन्य हूँ, जो (गुरु) कृपा करके (मुझे) आज्ञा देते हैं । (उनकी) उत्तम दृष्टि में (मैं) बसा हूँ--यह (मेरे लिये) परम सुख है।'
'मन्नेइ में परं जुग्गं, जम्हा ममेव सासइ । परमो एस सोहग्गो, तम्हा ण हरिसज्ज कि' ॥५३॥