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चउत्थो परिच्छेओ-खयकरणं
(कषायों को क्षय करना) कषाय-क्षय की प्रवृत्ति का प्रारंभ
कसायं तु किस किच्चा, धीरो अप्पं वसं करे । उवाए पुण जाणित्ता, खयं काउं पयट्टए ॥१॥ धीर (साधक) कषायों को कृश करके अपने आपको (अपने) वश में करे और फिर (कषाय-क्षय के) उपायों को जानकर (उनका) क्षय करने के लिये प्रवृत्त होवे।
' टिप्पण--१. कषायों को दुर्बल करके, उन्हें अपने वश में करनाकषायक्षय की भमिका है । २. कषायों को कृश और वश करने पर आत्मा स्वाधीन होता है अर्थात् अपने बल-वीर्य को संयमित करके, उनसे यथेच्छ कार्य लेने में सक्षम होता है । ३. जीव का वास्तविक इच्छित कार्य कर्मक्षय का पुरुषार्थ ही है। समस्त कर्मक्षय कषाय-क्षय के बिना संभव नहीं है अथवा कषायक्षय होने पर अन्य कर्मों का क्षय अवश्यमेव होता है। ४. जीव स्वाधीन बनकर ही कषाय-क्षय के उपाय उपलब्ध कर सकता है और फिर उसके परिणाम कषायक्षय के लिये प्रवृत्त होते हैं । ५. कषायक्षय के लिये परिणाम की प्रवृत्ति के लिये तीन बातें आवश्यक हैं--कषाय की कृशता, आत्मस्वाधीनता और तथारूप उपायों की उपलब्धि ।
क्षय की परिभाषा
जे जे अप्प - पएसेसुं, बहा चिट्ठन्ति णं चिरा । सताए तेसि उच्छेओ, खओत्ति वुच्चए पहू ॥२॥
आत्म-प्रदेशों में लम्बे समय (या अनादि) से जो-जो (कर्म) बन्धे हुए हैं--बन्धते रहे हैं, उन्हें सत्ता में से उड़ा देना-प्रभु क्षय कहते हैं ।