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नहीं ?' यह प्रश्न साधक के चञ्चल चित्त को साधना में स्थिर करने के लिये है । ३. उक्ति के दोनों ही अंश सत्य हैं । किन्तु 'हे साधक ! तू कर्मबन्ध को फलवान मानकर, कर्मक्षय के उपायों को निष्फल मानता है - यह सही नहीं हैं । ४. जब साधक कषाय आदि के क्षय के परिणाम लाने का अभ्यास करता है, तब उनका कषाय-क्षय रूप फल अवश्य ही प्रकट होगा ही - यह श्रद्धा कर । ५. अशुभ परिणाम से कर्म-बन्ध होता है । किन्तु वे बद्ध कर्म तत्काल ही फल प्रदान नहीं करते हैं । उनकी स्थिति पूर्ण होने पर ही प्रायः वे फल प्रदान करते हैं । वैसे ही कर्मक्षय के उपाय भी परिणाम रूप होने पर भी वैसे उत्कर्ष के स्तर पर पहुँचकर ही कर्मक्षय रूप फल प्रदान करते हैं । ६. 'वैसे अशुभ परिणाम - जनित कर्म सफल है, वैसे शुभ परिणाम-जनित साधना भी सफल ही है' ऐसी श्रद्धा होने पर साधना से विरत होने के परिणाम कैसे आयेंगे ? ७. योग शुभ और अशुभ ही होते हैं - शुद्ध नहीं । साधना योगजनित या योगाश्रित होती है । अतः सैद्धान्तिक मत से साधना शुभयोग ही है ।
इस परिच्छेद का उपसंहार
एवं मुणित्ता विवि उवाए, तेहि करिता सवसे कसाए । लन्भंति जीवा पसमं गुणेय, तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं ॥ ६५ ॥
इसप्रकार ( साधक) जीव विविध प्रकार ( कषायों को वश में करने ) के उपायों को जानकर और उनके द्वारा कषायों को अपने स्वाधीन करके प्रशम भाव को गुणों ( = मूल और उत्तर गुणों) को प्राप्त करते हैं (अत: मुनि बन जाते हैं और कषायों को वश में करने के लिये अप्रमत्त बनते हैं ) इसकारण से वे मुनि मोक्ष को जल्दी ही प्राप्त करते हैं ।
टिप्पण - १. कषाय -वशीकरण के उपाय गुरुजन का विनय करके उनसे श्रवण करें । ऐसा ही योग नहीं हो तो स्वयं विनय पूर्वक तद्विषयक ग्रन्थों को पढ़ें और फिर चिन्तन करके उन उपायों को उपलब्ध करे अर्थात् उन्हें