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( २६३ )
कर्मक्षय का हेतु (--भावविशुद्धि-)
कसायस्सुदओ तेण, पुणो बंधो पुणोदओ । एवं अणाइ-कालाओ, कमो संसार-चक्कए ॥३॥
(सत्तागत) कषाय का उदय होता है । उससे (क्रोध आदि परिणति के कारण) पुनः (कषाय-कर्मों का) बन्ध होता है और फिर (उस कषाय का) उदय होता है। इसप्रकार इस संसार-चक्र में अनादि काल से (यही) क्रम (चल रहा) है।
टिप्पण--१. कषाय रूप जड़ कर्म जीव के कार्मण शरीर में जमा रहते हैं । वही सत्ता है अर्थात् कर्मों में जब तक फल देने की शक्ति का प्रादुर्भाव न हो वहाँ तक वैसे ही रूप में (कार्मण शरीर के रूप में) पड़े रहना । २. कर्म की स्थिति परिपक्व होने पर वह फल देने के लिये सत्ता में से चलायमान होता है और फिर क्रमशः फल प्रदान करने के लिये प्रवृत्त होता है, उसे (विपाक-) उदय कहते हैं । ३. फल का वेदन होना विपाकोदय है। फल का वेदन न होते हुए कुछ-कुछ कर्मदल का उदय में आना प्रदेशोदय है । कर्म की स्थिति = काल मर्यादा के पूर्ण होने का समय आने पर विपाकोदय होता है और अबाधा काल=कर्म के ज्यों-के-त्यों पड़े रहने का समय पूर्ण होने पर प्रदेशोदय होता है । यहाँ उदय से प्रयोजन विपाकोदय से है। ४. कषाय का विपाकोदय होने से उस-उस प्रकृति के तीव्र रसादि के स्तर के अनुसार क्रोध, मान आदि विकार आत्मा में उठते हैं। वे विकार भाव पुनः तथारूप आकर्षित कर्मों को आत्मा के साथ जोड़ने का कार्य करते हैं अर्थात् पुनः क्रोध के उदय से क्रोधरूप और मान आदि के उदय से मान आदि रूप कर्मों का बन्ध होता है। वे बद्धकर्म सत्तागत हो जाते हैं । ५. सत्ता में से पुनः कर्म का उदय, उससे फिर बन्ध, फिर सत्ता और फिर उदय-इस प्रकार यही क्रम अनादि. चल रहा है । ६. इस क्रम से संसार की स्थिति है, इसलिये यह संसार-चक्र कहलाता है। ७. संसार में समस्त जीवों की यही स्थिति है । बन्ध के बाद