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उदय और उदय में पुनः बन्ध-यही चक्र चल रहा है। ८. इस कषायचक्र को समझना सरल नहीं है। विरले जन ही इसे समझ पाते हैं।
यदि इसीप्रकार बंध और उदय का चक्र चलता रहे तो जीव कभी मुक्त नहीं हो सकता। इस शंका का समाधान करते हैं
बद्धं रसेण तिव्वेणं, मंद मंदेण तिव्वयं । कम्मं हवइ भावेणं, अकम्मं अरसं हवे ॥४॥
भाव (=परिणाम) से तीव्र रस से बाँधा हुआ कर्म मंद रसवाला और मंदरस से बाँधा हुआ कर्म तीव्र रसवाला हो जाता है । तथा रस से रहित कर्म अकर्म हो सकता है।
. टिप्पण--१. कर्म-बन्ध में प्रधान हेतु रस है। २. रस के दो अर्थकषाय से अनुरंजित आत्म-परिणाम और आत्मा में तथारूप परिणाम उत्पन्न करने की कर्म में पड़नेवाली शक्ति । ३. कषाय से अनुरंजित परिणाम से कर्म में फल उत्पन्न करने की शक्ति उत्पन्न होती है। वह कर्मगत रस है। कषाय-अनुरंजित परिणाम आत्मगत रस है। ४. आत्मगत रस के निमित्त से कर्म में स्थितिबंध और रसबन्ध होता है । ५. तीव्र रस से तीव्र रस का बंध
और मंदरस से मन्दरस का बन्ध होता है। किन्तु उस बद्धरस में भाव से न्यूनाधिकता भी हो जाती है। अतः उदय में आने की अपेक्षा से चतुर्भगी बन जायेगी-तीवरस से बद्धकर्म तीव्ररस से युक्त फल देनेवाले, तीव्ररस से बद्धकर्म मंदरस से युक्त फल देनेवाले, मंदरस से बद्धकर्म तीव्ररस से युक्त फल देनेवाले और मंदरस से बद्धकर्म मंदरस से युक्त फल देनेवाले । ६. यहाँ कषाय का प्रकरण है। तीव्र कषाय से बद्ध कर्म परिणाम विशेष से मंद कषाय रूप में परिणत होनेवाले हो जाते हैं । मंदरस से बद्धकर्म में इससे विपरीत स्थिति हो सकती है। ७. जिस रस से कर्मबद्ध हुए हों, वैसे ही रस से उदय में आये और पुनः वैसे ही रसवाले कर्म का बन्ध हो तो कभी भी कर्मों से मुक्ति नहीं हो सकती । किन्तु ऐसा एकान्त नियम नहीं है । भाव की