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जब राग विकार से हटाकर आत्मभाव में किया हो, तब शुद्धि की रुचि, धर्म का विश्वास, भव से भय और देव आदि तत्त्वत्रय में निश्चल प्रीति (उत्पन्न) होती है। फिर उन भावों से संवेग (और अधिक) तीक्ष्ण होता है और अपूर्वकरण (आदि) होता है । जिससे ग्रन्थि-भेद (=अनन्तानुबन्धी चतुष्क का क्षय) होता है।
टिप्पण-१. राग को विकारों से हटाकर आत्मभाव में जोड़नासामान्य संवेग है। २. संवेग से आत्मशुद्धि का भाव विशेष गतिशील होता है। इस भाव से शुद्धि की साधक अनुत्तर धर्मश्रद्धा उत्पन्न होती है । फिर भव से भय और सुदेव आदि में निश्चल अनुराग उत्पन्न होता है । ३. भव से भय के साथ ही भव के कारण पापों से भय पैदा होता है। अतः पापों से भय को भी संवेग कहा गया है, वैसे ही सुदेवादि में निश्चल अनुराग को भी। ४. अनुत्तर-धर्मश्रद्धा आदि से संवेग अत्यधिक तीव्र बनता है। उससे अपूर्वकरण रूपभाव और अनिवृत्तिकरण होते हैं। जिससे अनन्तानुबन्धी चतुष्क का क्षय होता है। ५. अपूर्वकरण से स्थितिघात आदि होते हैं । इनका स्वरूप कर्मग्रन्थों की टीका से जानना चाहिये।
तं छित्ता पुण मिच्छत्तं, खवित्ता लहए रुइं । पप्प विसुद्ध - सम्मत्तं, छेयइ भव - मालियं ॥२०॥
उस (अनन्तानुबन्धी चतुष्क) को क्षय करके फिर मिथ्यात्व को क्षय करके (अटल) रुचि को प्राप्त करता है (इसप्रकार जीव) विशुद्ध सम्यक्त्व को प्राप्त करके भव-मालिका को छेद देता है।
टिप्पण--१.अनन्तानबन्धी चतुष्क को क्षय करने के बाद संवेगजनित परिणाम मिथ्यात्वमोहनीय को क्षय करने के लिये प्रवृत्त होते हैं। इसके क्षय की प्रक्रिया भी कर्मग्रन्थों की टीका से जानना चाहिये । २. अनन्तानुबन्धी चतुष्क और दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियाँ मिथ्यात्वमोहनीय, सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय को क्षय करने से विशुद्ध सम्यक्त्व