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अर्थात् क्षायिक सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है । ३. क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक ये सम्यक्त्व के तीन प्रकार हैं । औपशमिक सम्यक्त्व अल्पकालीन होता है और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में भी चंचलता बनी रहती है । अतः उनसे उत्पन्न रुचि भी वैसी ही होती है । क्षायिक सम्यक्त्व निश्चल होता है । अतः उससे उत्पन्न रुचि भी निश्चल होती है । ४. रुचि अर्थात् -भाव और उपादेय में उपादेय भाव । क्षायिक सम्यक्त्व से उत्पन्न रुचि निश्चल और निरतिचार होती है तथा जबतक केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक वह निवृत्त नहीं होती है । मोहक्षय में उसका महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है । इसलिये उसकी प्राप्ति का पुनः विधान किया है । ५. जिसे क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है, वह उसी भव में मुक्त हो जाता है - यदि आयुष्य नहीं बन्धा हो तो । यदि आयुष्य का बंन्ध सम्यक्त्व लाभ के पूर्व ही हो गया हो तो तीसरे या चौथे भव में अवश्य मुक्ति लाभ करता है । इसलिये यहाँ भव-मालिका के छेदन की बात कही गयी है ।
३. निर्वेद द्वार
भव और उसमें अरुचि
राग-रागे गए पत्ते, धम्मरागेभवेऽरुई । सो विसय पहाणो वा, गुणे भवो भवे गुणा ॥२१॥
राग में राग के दूर होने पर और धर्मराग के प्राप्त होने पर भव में अरुचि होती है । वह ( = भव) विषय प्रधान होता है अथवा गुण में भव और भव में गुण हैं ।
टिप्पण - १. रागभाव में जीव का अत्यधिक राग होता है । जीव किसी का राग - प्रेम पाने के लिये और अपने राग- पोषण के लिये तनतोड़ मेहनत करता है । राग में राग कषायराग का ही अंश है । २. कषायराग 'के व्यतीत होने पर रागराग भी समाप्त हो जाता है । इसके पश्चात् धर्म