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सम्मत है । उत्तराध्ययनसूत्र के कम्मपयडी अध्ययन ( गाथा १७ ) मे गण्ठियसत्त शब्द आया है, जिसका अर्थ अभव्य जीव की राशि किया गया है अर्थात् जिनके ग्रन्थि सदैव विद्यमान रहती है, ऐसे जीव । अभव्य जीवों के ग्रन्थि-भेद नहीं होता - अनन्तानुबन्धी का चतुष्क भी क्षय नहीं होता है । अतः ग्रन्थि और अनन्तानुबन्धी चतुष्क एक प्रतीत होते हैं । ७. अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में होती है । उस सम्यक्त्व से जीव पतित हो जाता है । अतः अनन्तानुबन्धी का बन्ध पुनः प्रारंभ हो जाता है तो यह प्रश्न उठता है कि क्या ग्रन्थि भी पुनः बन जाती है ? - इस विषय में सम्प्रति प्रमाण पुरःसर कुछ नहीं कहा जा सकता है । अतः तत्त्वं तु केवलिगम्यं - यह कहकर संतोष करते हैं । ८. यहाँ संवेग का कार्य ग्रन्थि-भेद जो कहा गया है, उसका आशय अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्कका क्षय है ।
अप्पसुद्धी हि मोक्खोऽत्थि, कसाथ रहिया य सा । तम्हा तस्सेव पीईएऽणंतबंधी खएन कि ? . ॥१६॥
आत्मशुद्धि ही मोक्ष है और वह ( = आत्मशुद्धि) कषाय से रहित होती है | अतः उस (मोक्ष) की प्रीति से अनन्तानुबन्धी का क्षय क्यों नहीं हो सकता है ?
टिप्पण -- १. आत्मा की परमशुद्ध अवस्था ही मोक्ष है । २. समस्त कषायों के क्षय हो जाने पर ही पूर्णतः आत्मशुद्धि उपलब्ध होती है । क्योंकि कषायों के क्षय होने पर मोहनीय कर्म का क्षय पूर्ण होता है और मोहनीय के क्षय के साथ ही शेष तीन घाती कर्मों का युगपत् क्षय हो जाता है । अघाती कर्म तो भवोपग्राही हैं । जब तक आयुष्य है, तबतक वे रहते हैं और आयुष्य के क्षय के साथ ही जीव अन्य कर्मों से भी मुक्त होकर सिद्ध हो जाता है । अतः कषाय से मुक्ति ही मुक्ति है - यह उक्ति सही है । ३. मोक्ष की प्रीति आत्मशुद्धि की प्रीति है । उससे मोक्ष की उपादानता तैयार होने लगती है