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मोक्ष में प्रीति उत्पन्न हो सकती है । ८. मोक्ष में प्रीति और कषायों में विरक्ति के भावों का पुनरपि पुनः अभ्यास करना। ऐसा करने से राग और द्वेष में मोड़ आ जाता है। ९. राग-द्वेष का यह मोड़ मोह का आंशिक क्षयोपशम है। इसीलिये इसे प्रशमभाव कहा है। इस विषय में राजा प्रदेशी का भाव मोड़ दृष्टव्य है।
२. संवेग द्वार
संवेग का स्वरूप और उसका कार्य
रई मोक्खस्स संवेगो, गंठी तेणेव भिज्जए। सुद्धि - रागो हु कसाय - रागस्स न सजाइओ ॥१५॥
मोक्ष की रति (=मोक्ष की चाह) संवेग है। उस (संवेग) से ही (राग-द्वेष की) ग्रन्थी भिदती है। क्योंकि शुद्धि का राग कषाय के राग का सजातिक (=उसीकी जातिवाला) नहीं है।
टिप्पण--१. मोक्ष का राग या उसकी इच्छा संवेग है। २. संवेग से ही ग्रन्थि-भेद होता है। ग्रन्थि अर्थात् राग-द्वेष की निबिड़ दुर्भेद्य गांठ अथवा राग-द्वेष के घने जमे हुए परिणाम । ३. तीव्र संवेग से अनन्तानुबन्धी चतुष्क का क्षय होता है-ऐसा आगम-वचन है। इसी दष्टि से सवेग से ग्रंथिभेद होता है-यह माना है। ४. मोक्ष का राग शुद्धि का राग है । कषाय आत्मा की अशुद्धि है। अतः कषाय का राग आत्मा की अशुद्धि का राग है। आत्म-शुद्धि और आत्म-अशुद्धि का राग एक ही नहीं हो सकते हैं, और न समान जातिवाले ही हो सकते हैं। ५. अनन्तानुबन्धी-चतुष्क और ग्रन्थि एक प्रतीत होते हैं। क्योकि उत्तराध्ययनसूत्र के सम्यकत्व-पराक्रम अध्ययन में प्रथम पुरुषार्थ संवेग है और उससे अनन्तानुबन्धी के क्षय की बात कही है । ग्रन्थि-भेद की बात नहीं है। ६. 'ग्रन्थि' की मान्यता आगम