Book Title: Mokkha Purisattho Part 03
Author(s): Umeshmuni
Publisher: Nandacharya Sahitya Samiti

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Page 289
________________ यह कैसे हो ? - ( २७२ ) 'कहं करेमि एवं' तु, किच्च भासेण भावंमि तं किल , 'पन्नाए हु वियारणं । परियट्टए ॥१४॥ ( साधक का प्रश्न - ) ' इसप्रकार कैसे करूँ ?' (उत्तर - ) 'निश्चय ही प्रज्ञा से विचारणा करके, और भाव में अभ्यास के द्वारा ( कषाय भाव) को परिवर्तित करे ।' टिप्पण - १. तेरहवीं गाथा में राग को मोक्ष के प्रति और द्वेष को कषाय के प्रति भोड़ने की बात कही है । इस गाथा में उसे मोड़ने की विधि बताई है । २. राग का कार्य है- प्रीति भाव और द्वेष का कार्य है - अप्रीति / अरुचि भाव | इन्हें मोड़ना अर्थात् इनके पात्रों को पलट देना । ३. कह करेमि एवं - यह प्रश्न है । एवं अर्थात् राग और द्वेष को मोड़ना । राग-द्वेष के पात्र को कैसे पलटना ? ४. प्रश्न से यह सूचित किया है कि "इस विषय में पहला साधन है - तीव्र जिज्ञासा। दूसरा साधन बौद्धिक विचारणा अर्थात् पहले प्रज्ञा को विशुद्ध करना । समझ में जो कषाय को चेतना का अंश मानने की भूल है, उसे सुधारना । और उसमें मेरापन है उसे हटाकर 'वे अच्छे हैंउपयोगी हैं' - यह भाव दूर करना । इसप्रकार प्रज्ञा शुद्ध होती है । फिर यह विचारणा करना- 'क्या कषायों में सचमुच में मेरा राग है? क्या मेरी वृत्ति इनसे चिपटे रहने की है ? क्या मैं इनका पोषण करके प्रसन्न होता हूँ ?' यदि ये दोष दिखाई दें तो बेहिचक स्वीकार करके उन्हें दूर करना। ऐसी विचारणा सदैव चलती रहना चाहिये । ५. मोक्ष अर्थात् शुद्ध आत्मस्वरूप में सदा के लिये स्थिति । आत्मा में ही और आत्म- गुणों में ही ममत्व स्थापन करना - आत्मरुचि उत्पन्न करना - मोक्ष में प्रीति का प्रारंभ है । पहले ऐसी बौद्धिक विचारणा करना । ६. कषायों के दुष्फलों को पूर्णतः समझना और चिन्तन करना । इस से कषायों में विरक्ति का भाव उत्पन्न हो सकता है । ७. मोक्ष के स्वरूप को समझना और उसका चिंतन करना । इससे

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