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तीव्रता का कारण बनता है। ३. कषायराग विष के सदृश है । विष जीवन का अन्त करता है और कषायराग गुणों का अन्त करता है। ४. कषायों में राग होता है तो गुणों के प्रति अरुचि होती है। ५. कषायराग महादुष्ट है अर्थात् जीव का अति अनिष्ट करता है। कषायराग भवराग का सृष्टा भी है। भवराग मोक्ष-विद्वेष का हेतु बनता है। अतः कषायराग भवद्वार का उद्घाटक है। ६. कषायों का राग दुःख का भी द्वार है और लम्बे समय तक जीव को दुःखी बनाये रखता है । वस्तुतः अभी तक के दुःख का हेतु भी वही है । राग-द्वेष को उलट दो
हिच्चा कसायरागं च, मोक्खदोसं विउक्कम-- करे, कसाय-अप्पोइं पोइं भव्वो धरे सिवे ॥१३॥
कषाय-राग और मोक्ष-द्वेष को हटाकर (उनका) व्युत्क्रम करे । अतः भव्य आत्मा कषायों में अप्रीति और मोक्ष में प्रीति धारण करे ।
टिप्पण-१. कषाय संसार का कारण है। जिसका संसार में भव में राग है, उसका कषाय में भी राग है और भवरागी को मोक्ष में द्वेष होता है। मोक्ष-द्वेषी मोक्ष के उपायों-रत्नत्रय की आराधना में भी द्वेष रखता है। २. कषायराग उसीका छुटता है, जिसे भव में अरुचि हुई हो । कषायराग का और शिव द्वेष अर्थात् मोक्ष में अरुचि का परित्याग करो। ३. कषायराग और मोक्ष-द्वेष को उलट देना चाहिये अर्थात् कषाय में अप्रीति और मोक्ष में प्रीति धारण करना चाहिये। कषाय में अप्रीति ही भव अरुचि और मोक्ष में प्रीति ही मोक्ष रुचि की हेतु बनती है। ४. भव्य अर्थात् जो समीप के समय में ही मोक्ष पाने की योग्यतावाला है-आसन्न भव्य । यहाँ भव्य शब्द से यही आशय है। क्योंकि आसन्न भव्य ही या शुक्ल-पाक्षिक जीव ही कषायराग का निवारण कर सकता है ।