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एक मत है । ३. इस मतानुसार कषाय के भावों में राग-द्वेष नहीं करना ही समभाव है। यह प्राकृत भाषा के सम शब्द का संस्कृत में सम शब्द के रूप में रूपान्तर है, जिसका आशय माध्यस्थ्य भाव है। ४. सम शब्द का यह आशय युक्तयुक्त नहीं है। क्योंकि ऐसा संभव नहीं है।
इस मत की अयुक्तता का हेतु
कसाएणेव मज्झत्थं, नस्सइ किं न जाणसि ? तेसु महाविरोहो ता, होहितेगखणे कहं ॥१०॥
क्या (तुम) यह नहीं जानते हो कि कषाय से ही माध्यस्थ्य भाव विनष्ट होता है । उन (दोनो) में (परस्पर) महा विरोध है । इसकारण (वे दोनों) ‘एक ही क्षण में (साथ में) कैसे होंगे।
टिप्पण-राग-द्वेष से टलकर माध्यस्थ्य भाव होता है। अतः रागद्वेष माध्यस्थ्य भाव का नाशक है। माध्यस्थ्य भाव होगा तो राग-द्वेष में प्रवृत्ति नहीं होगी। किन्तु राग-द्वेष के प्रति, उनके प्रवर्तमान होते हुए, माध्यस्थ्य भाव कैसे होगा?
कषाय-विवेक और समभाव--
संभवोऽत्थि विवेगोत्ति, तस्सुदये कहंचिय । तं वएज्ज समं भावं, सो जुत्तोऽस्थि किचि वि ॥११॥
उस (कषाय) के उदय होने पर विवेक संभव है। किसी अपेक्षा से उसको समभाव कहा जाय तो वह कुछ भी युक्त है ।
टिप्पण--१. कषाय-विवेक अर्थात् क्रोधादि प्रवृत्ति का त्याग । २. क्रोध आदि के उदय होने पर स्व-उपयोग में स्थित होकर क्रोध आदि