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शम (प्रथम), संवेग, निर्वेद, धर्मश्रद्धा, प्रलोकना, निन्दा और गर्हाये कषायक्षय के उपाय हैं तथा अन्य उपाय भी आगम में कहे गये हैं ।
टिप्पण -- १. इस गाथा में क्षय के उपायों के साथ ही द्वारों का क्रम भी निर्दिष्ट है । २. शम ( प्रशम ) - क्रोध और मान द्वेष तथा माया और लोभ राग हैं । राग और द्वेष के प्रवाह के मोड़ को यहाँ प्रशम माना है अथवा कषायों से रागभाव का निवारण प्रशम है । ३. संवेग - - मोक्ष या आत्मा में रति या राग । मोक्ष या आत्मा में राग कषाय-जनित नहीं है । यह भाव कषाय से विलक्षण है । यह राग सदृश भाव होते हुए भी राग से भिन्न है । आत्मभाव से भिन्न पदार्थों और भावों में राग से कर्म का बन्ध होता है । किन्तु आत्मा में राग से कर्मों का क्षय होता है । ४. निर्वेद- --भव और विषयों में अरुचि । यह भाव द्वेष जैसा प्रतीत होता है । किन्तु यह कर्मबन्ध का हेतु नहीं है । क्योंकि यह अरुचि आत्मराग से उत्पन्न होती है । ५. धर्मश्रद्धा-धर्म में अटल विश्वास । इस भाव में कषायांश नहीं है । यह भी विशुद्ध भाव का रूप है । ६. प्रलोकना— निरीक्षण करने का भाव । इसके दो रूपउपयोग से युक्त आराधना में प्रवृत्ति और आराधना में हुई स्खलनाओं का निरीक्षण । ये दोनों भाव कषाय से अनुरंजित नहीं होते हैं । ७. आत्मनिंदा --- अपने दोषों का पश्चाताप । । यह भाव भी आत्मविवेक से उत्पन्न होता है । अत: यह भाव भी कषाय से भिन्न है । ८. ग- गुरुदेव की साक्षी से अपने दोषों की निंदा करना । यह भी विशुद्धभाव है । ७. ये सात भाव कषायक्षय के लिये मुख्य हैं । फिर इनके आधार से अन्य धर्मानुष्ठानों का विधान भी है । आगम में अन्य भावों का भी वर्णन है ।
१. प्रशम द्वार
( प्र - ) शम की परिभाषा -
सोच्चा नच्चा कसायस्स, तिव्वत्तेयर - हायणं । ताओ रागस्स दोसस्स, वारणं लक्खिओ समो ||८||