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वहाँ तक साधना का बल बढ़ाते रहना है । ५. कषाय उदय में आते हैं तो उनका क्रोधादि रूप फल अवश्य होता है । अतः शोक से संतप्त नहीं होना चाहिये । भले ही कोई ढोंगी, धूर्त या पाखण्डी कहे - इससे न बुरा मानना है और न दीन ही होना है ( क्योंकि उदयवालिका में प्रविष्ट कर्म को फल देने से नहीं रोका जा सकता है । ) ६. 'मेरे अशुभ कर्म का उदय है' — ऐसा सोचकर क्रोध आदि भी नहीं करते जाना है । सदा सावधान रहते हुए उन्हें ज्यादा फैलने नहीं देना चाहिये और प्रतिक्रमण, प्रायश्चित आदि से शुद्धि करते रहना चाहिये । ७. 'कषाय कितने भी प्रबल हों, एक दिन मैं इन पर अवश्य जय प्राप्त करूँगा' - यह दृढ़ संकल्प दुहराते रहना चाहिये । ८. 'मैं आत्मा हूँ और कषाय रूप कर्म जड़ है । मेरे इनके वशीभूत हुए बिना ये कदापि नहीं फल सकते हैं - यह सोचकर उदय-निरोध के भावों में परिव्रजन - विहरण करते रहना चाहिये ।
उत्साही बनो—
साहणं ते हु नासंति मा अट्टो हज्ज संजओ ! तवेव संति सत्ताए, नासट्टा वोरियं धरे ॥ ६३ ॥
क्योंकि वे साधना को नष्ट कर देते हैं । किन्तु संयत आर्त नहीं होवे । वे ( कषाय) तेरी ही सत्ता में हैं । इसलिए (उनके) नाश के लिये वीर्य - उत्साह, शक्ति ) धारण करें ।
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टिप्पण - १. इस गाथा में अप्रमत्त रहने का कारण पहले चरण में बताया है । वे कषाय साधना को भंग कर देते हैं । इसलिये अप्रमत्त रहना आवश्यक है । २. जब 'हु' शब्द का अर्थ निश्चय' लिया जाता है, तब 'अप्रमत्त रहते हुए भी किंचित्-सी असावधानी में वे कषाय साधना को निश्चय ही भंग करते हैं - यह अर्थ होगा । कषायों का स्वभाव साधना को भंग करना ही है । ३. अप्रमत्त रहते हुए भी साधना भंग होगी तो आर्तता