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ही विकार रूप में परिणत हो जाता है अर्थात् मोह का फल विकार ही है । २. मोह का उदय ही भावकर्म है । भावकर्म से ही पुनः कर्म का बंध होता है । ३. राग और द्वेष ये भावकर्म के मुख्य दो रूप हैं । राग-द्वेष की परिणति के अभाव को ही समभाव कहा जाता है । अतः मोह के उदय में समभाव नहीं रह सकता । ४. जब विकार होता है, तब आकुलता अवश्य होती है । अतः राग-द्वेष के अस्तित्व में अनाकुल रहना संभव नहीं है । ५. उनके मंद होने पर ज्ञानी जीवों के मन में खेद अवश्य होता है । क्योंकि मोहोदय से ही अनाचार में प्रवृत्ति होती है । अतः उसके प्रति खेद होना चाहिये । उसके भोग के प्रति आकुलता और भोग के पश्चात् खेद ही साधना में उत्साह और दोषों का प्रायश्चित करने का भाव उत्पन्न होता है ।
मोहो चेव कसाया वि, उदओ जेसि होइ तो। मा पवहे पवाहम्मि, खिन्नो धीरो थिरो हवे ॥६१॥
कषाय भी मोह ही है । उनका उदय (विकार रूप) है । इस (उदय) के पश्चात् (उसके) प्रवाह में नहीं बहे । खिन्न (होता हुआ) धीर पुरुष (उस समय) स्थिर रहे।
टिप्पण-१. कषाय भी मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ हैं। २. इन कषाय रूप मोहनीय कर्म के उदय में आने पर क्रोध आदि विकार ही उत्पन्न होते हैं । ३. विकार विवेक को नष्ट करता है । अतः जिस समय उनका तीव्र रूप से उदय होता है, उस समय बुद्धि से सही निर्णय होना संभव नहीं है । उस समय बुद्धि कुंठित हो जाती है और आत्म-संयम भी छुट जाता है। अतः जीव कुछ क्षण के लिये तो उस भाव-प्रवाह में बहेगा ही। ४. असाधक जीव उस भाव-प्रवाह में लम्बे समय तक बह सकता है। किन्तु साधक जीव ऐसा नहीं होने दे। उसे सोचना चाहिये कि 'मैं साधक हूँ । मैं विकारों में बहूँ तो