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विपाक ही होता है । घातिकर्मजन्य अशुभ विपाक में - आवरण और विकार में प्राय: आकुलता नहीं होती । अघातिकर्मजन्य अशुभ विपाक में और विघ्न में प्रायः आकुलता होती है । ६. समस्त कर्मों से मुक्त होने के भाव होने चाहिये । किन्तु जब कर्म का भोग चल रहा हो, तब शुभ विपाक में रागाकुल और अशुभ कर्म विपाक में द्वेषाकुल न बनकर समभाव में स्थित रहना चाहिये । ७. वस्तुतः अशुभ- अघाति-कर्मविपाक में आकुल नहीं होना चाहिये । क्योंकि वह अनिष्ट संयोग रूप होता है । अत: उसमें आकुलता होने पर आर्तध्यान ही निष्पन्न होता है ।
घातिकर्म विपाक के प्रति भाव -
विग्धावरण भोगम्मि, मा हुज्ज आउलो विऊ । खवितुं ते समं कुज्जा, पसंतो सुसमाहिवं ॥ ५९ ॥
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विज्ञ विघ्न अन्तराय और आवरण – ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के भोग में आकुल नहीं होवे । किन्तु प्रशान्त और उत्तम समाधिवान बनकर उनको क्षय करने के लिये श्रम = तप करे 1
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टिप्पण – १. विज्ञ अर्थात् कुशल साधक । साधक को कर्म के भेद-प्रभेदों और उनसे होनेवाले फलों का ज्ञाता होना चाहिये । साथ ही 'मैले वस्त्र के प्रक्षालन के समान मैं अपने कर्ममल के प्रक्षालन के लिये तत्पर हुआ' — सदैव यह भान रहना चाहिये । यह बोध ही साधक को साधना में मुक्ति - पर्यन्त प्रवृत्त रखता है । २. अन्तराय कर्म के उदय से दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न उत्पन्न होता है । ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से ज्ञान और उसके स्रोतों का ह्रास होता है और दर्शनावरणी कर्म के उदय से सामान्य बोध का हास होता है और निद्रा घेरती रहती है । विघ्न उत्पन्न होने पर सहज ही