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( २५२ ) पड़े । उन्हें तत्काल ही हर्ष आदि शेष तीन अंग भी उपलब्ध हो
गये।
९. कर्म-विपाक-चिन्तन-द्वार
कर्मविपाक के प्रति भाव
चित्तो कम्म-विवागोऽस्थि, नस्सि रज्जसु मुझसु । भोगो बद्धाण तुज्मेव, पुणो बंधो जमाउलो ॥८॥
कर्म-विपाक अनेक प्रकार का है । इस (कर्म-फल) में न आसक्त बन और न विवेक-विकल बन । क्योंकि (वह कर्म-फल का) भोग तेरे ही बन्धे हुए (कर्मों) का है ।. यदि (उनमें) आकुल (होता) है. तो फिर से कर्म का बन्ध होता है।
टिप्पण-१. कर्म-विपाक अर्थात् कर्मों का फल । उसके दो प्रकार-शुभ और अशुभ । शुभ के मनोज्ञ भोग आदि अनेक भेद हैं । अशभ के मख्य दो भेद-अघातिकर्मजन्य और घातिकर्मजन्य । अघातिकर्मजन्य अशुभ विपाक के अमनोज्ञ भेद आदि अनेक भेद हैं और घातिकर्मजन्य के प्रमख तीन भेद हैं-आवरण, विकार और विघ्न । २. शभविपाक में आसक्त नहीं होना-रागी नहीं बनना। अशुभविपाक में विवेक विकल नहीं बनना-द्वेषी नहीं बनना। ३. अपने ही कर्मफल का भोग होता है-पराये का नहीं । बंधे हुए कर्म ही उदय में आते हैं । यदि कर्म भोग रहे हैं तो कर्म सत्ता में अवश्य हैं, तभी उनका फल भोग हो रहा है । अपने कर्म होते ही नहीं तो उनका फल भी नहीं भोगना पड़ता । ४. अनुकूल विपाक में जीव राग से आकुल होता है और प्रतिकूल विपाक में द्वेष से । दोनों प्रकार की आकुलता से पुन: अशुभ कर्म का ही बन्ध होता है । ५. शुभ विपाक अघाति कर्मों का ही होता है और घातिकर्मों का अशुभ