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टिप्पण-१. आज्ञा-पालन के चार अंश-हर्ष, पारतन्त्र्य, कार्यप्रवृत्ति और समर्पण । २. हर्ष-गुरु की आज्ञा में प्रसन्नता, आनन्द, सौभाग्य और सुख का अनुभव करना । कोई अपने पर हुक्म चलाता है तो मन में आक्रोश पैदा होता है । परन्तु जिसके प्रति हमारी पूज्यबुद्धि-भक्तिभावना होती है, उसका आदेश पाकर प्रसन्नता होती है और कार्य करके सन्तुष्टि होती है । इसप्रकार गुरु-आज्ञा में हर्ष अंशतः क्रोधजय में सहायक होता है । फिर वह हर्ष जीवनव्यापी होकर आत्मप्रीति में परिणत होता है। ३. परातन्त्र्य-गुरुआज्ञा के पूर्णतः अधीन होने के भाव । पराधीनता जीव को अच्छी नहीं लगती है । परन्तु जिसके गुणों के प्रति समादर होता है, उसकी अधीनता वह सहर्ष स्वीकार कर लेता है और उसकी अजानकारी में वह एक कदम भी भरना नहीं चाहता है। वैसे ही गुरु के प्रति समादर होता है तो उनका शासन सहर्ष स्वीकृत हो जाता है। जिससे व्यक्ति-स्वातंत्र्य आदि के नाम पर होनेवाली मान की प्रवृत्ति का विसर्जन कर देता है । ४. कार्य-प्रवृत्ति-गुरु की आज्ञा के अनुरूप ही कार्य सम्पादन करना । मनुष्य जैसा का तैसा कार्य करना नहीं चाहता । वह काम-चोरी करता है और उन्हें नहीं करने के बहाने बनाता है । परन्तु जिसके प्रति रागभाव होता है उसका कार्य प्राणप्रण से करने को तत्पर रहता है। वैसे ही गुरुदेव में परमानुराग होना चाहिये । भगवद् आज्ञा के अनुरूप उनकी समस्त आज्ञाओं को तथारूप संयोजित करके सम्पादन करना चाहिये । ऐसी प्रवृत्ति से माया पर जयलाभ होता है । ५. समर्पण-किसी भी पदार्थ में से अपनापन-ममत्व हटाकर गुरु-आज्ञाओं को ही अपना सर्वस्व मानना । समर्पण से लालसा का जोर नहीं चलता है । ६. श्री मेघमुनिजी का मन एक ही रात्रि में ही संयम से पतित हो गया । मान कषाय का उदय हुआ । अतः आक्रोश भी जागा । परन्तु भगवान से कहे बिना घर नहीं जाना । इतनी-सी आज्ञा-परतन्त्रता ने उन्हें संयम में स्थिर होने का अवसर दिया और फिर वे कषायजय के मार्ग पर चल