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गुरु आज्ञा में हर्ष का फल
हरिसो गुरु-आणाए, जगावेइ मणोबलं । कसाया तेण नो इंति, होति य सवसा सया ॥५६॥
गुरु आज्ञा में हर्ष मनोबल जाग्रत करता है । उस (बल) से कषाय आते नहीं हैं और सदा अपने वश में होते हैं।
टिप्पण-१. गुरुदेव के द्वारा स्वतः आज्ञा दिये जाने पर ख शी और गुरुदेव से छिपाये बिना पूछकर कार्य करने में उत्साह-यही गुरुआज्ञा में हर्ष है। २. गुरु से छिपाकर किया जानेवाला कार्य साधना नहीं है । ३. साधक के जीवन में गुरु-आज्ञा की अधीनता से स्वच्छन्दता का प्रवेश नहीं होता है । ४. स्वच्छन्दता में भोग का ही उत्साह रहता है और गुरु-आज्ञा की अधीनता से वह समाप्त होता है। क्योंकि साधक की अन्तर-परिणति खुले रूप से भोग भोगने से रोकती है । ५. यह अन्तर-परिणति गुरु-आज्ञा की अधीनता से परिपुष्ट होती है और आवेगों-आवेशों के वशीभूत नहीं होने की शक्ति उत्पन्न करती है । वही मनोबल है । ६. मनोबल कषायों के उदय की भूमिका को निर्मित नहीं होने देता । ७. कदाचित् कषाय बलात् उदय में आ जाते हैं तो सपेरे के द्वारा साँप को खिलाने के समान वह उन्हें खिलाता है । गुरु आज्ञा से कषायजय की विधि
हरिसेण जिणे कोहं, पारतंतेण उस्सयं । मायं किच्चं करित्ताणं, लोहं जिणेऽप्पणेण य ॥५७॥
(गरु-आज्ञा में) हर्ष से क्रोध को जीते । (आज्ञा के) पारतंत्र्य से मान को, (आज्ञा के अनुसार) कार्य करके माया को और (आज्ञापालन में) समर्पण से लोभ को जीते ।