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आकुलता होती है । किन्तु ज्ञान आदि के आवृत होने पर मोहनीय कर्म का यत्किचित् क्षयोपशम हो तभी आकुलता होती है अथवा विस्मृति आदि के कारण कुछ हानि होती है तो आकुलता होती है । ३. आकुलता प्रायः पुरुषार्थ की नाशक होती है । अत: उन्हें अलाभ और अज्ञान परीषह समझना चाहिये और परीषह को समभाव से सहने से ही निर्जरा होती है । ४. 'अज्ञान आदि मेरे ही कर्मों के फल हैं। इनसे आकुल होने पर ये दूर नहीं हो सकते हैं । इनसे लड़ते ही रहना है'--यह सोचकर आकुलता से विमुक्त होकर प्रशान्त बन जाय । यहाँ प्रशान्त का आशय अनाकुल है । ५. संकल्प-विकल्प से चित्त में क्षोभ उत्पन्न होता है-दुःख होता है। चित्त की अक्षब्धदशा समाधि है । 'साधना से तत्काल फल प्राप्त न होने पर भी चित्त का डावाँडोल नहीं होना'--समाधि से यहाँ यही भाव अपेक्षित है । ६. आकुलता कर्मविपाक के कारण होती है और क्षोभ साधन के सफल नहीं होने से होता है। अनाकुलता और अक्षोभ साधक के लिये परमावश्यक भाव हैं । उन्हें यहाँ प्रशान्ति और समाधि संज्ञा दी है । ७. साधना में चित्त-विप्लव न होने देते हुए उसके फल में दृढ़ श्रद्धा बनाये रखना सुसमाधि है । ८. कर्मक्षय के लिये श्रम करना अर्थात् तपश्चरण करना । समग्र शक्ति से ऐसा श्रम करनेवाला साधक ही श्रमण कहलाता है ।
विकार रूप विपाक के प्रति भाव
विकारो उदिओ मोहो, भावकम्मं पि सो चिय । तम्हा तस्सेव भोगम्मि, समभावो न वट्टइ ॥६०॥
मोहनीय कर्म का उदय विकार है और भावकर्म भी वही है। इसकारण उसके ही भोग में समभाव स्थित नहीं रहता है ।
टिप्पण-१. जबतक मोहनीय कर्म सत्ता में रहता है, तबतक वह विकार रूप में परिणत नहीं होता है । किन्तु वह उदित होते