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टिप्पण-१. इच्छा भी बन्धन ही है । क्योंकि स्वाधीन तो वह हैजो किसी के अधीन नहीं हो । २. विषयाभिलाषा जैसे जीव को नचाती है, वैसे वह नाचता है । पदार्थों के संयोग के लिये वह क्या नहीं करता है। ३. पदार्थ जड़ हैं। वे जीव को क्या नचा सकते हैं ? किन्तु अपनी इच्छा के कारण उनसे बंध जाता है । जीव की स्वच्छन्दता को अति परतन्त्रता सूचित करने के लिये उसे जड़ पदार्थों के द्वारा नचाता हुआ या उनमें नाचता हुआ कहा गया है। ४. जीव तुच्छ-से जड़ पदार्थ के लिये दुःखी हो उठता है तो उसकी वह स्वतंत्रता कैसी है ? ५. कहीं न कहीं आसक्त जीव ही स्वच्छन्द बनता है। फिर वह कषायों का पोषण करता है। ६. स्वच्छंद जीव को मर्यादा नहीं सुहाती है । वह उसे भंग करने के लिये 'नतनता' 'मानवता' 'आजादी' आदि के कई आकर्षक नारे देता है।
स्वच्छन्दों की गुरुजन के प्रति दृष्टि
... गुरुं तु रक्खसं बुलु, पावो मण्णइ अप्पियं ।
विरुद्धं तस्स आणाए, वट्टित्ता वड्ढए दुहं ॥५०॥
वह पापात्मा गुरु को राक्षस-दुष्ट अप्रिय मानता है और उनकी आज्ञा के विरुद्ध वर्ताव करके दुःख की वृद्धि करता है ।
टिप्पण-१. स्वच्छन्द जीव की पापवृत्ति होती है । अतः वह पापी है । क्योंकि वह निरंकुश होता है । २. गुरु उसे अपने सुखसपनों के भंग करनेवाले लगते हैं । अतः वह उन्हें राक्षस मानने लगता है । वे उसकी स्वच्छन्दाचार-प्रवृत्ति का निवारण करते हैं, इसलिये दुष्ट लगते हैं और अनुशासन करके सदाचार में प्रवृत्त करते है, अतः वे अप्रिय लगते हैं । ३. गुरु के प्रति अरुचि होने के कारण वह उनसे विरुद्ध आचरण करता है । वह गुरु-आज्ञा का उल्लंघन करता है और कषाय-प्रवृत्ति में रत रहता है।