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गधा भी निर्बन्ध होता है
( २४६ )
सयं मण्णइ सोहं व, ण ता खमइ बंधणं । सो इणं कि न जाणेइ, णिब्बंधो भमए खरो ||४८ ॥
वह अपने को सिंह के तुल्य मानता है । इसकारण बन्धन को नहीं सहत है । किन्तु वह यह क्यों नहीं जानता है कि निर्बंन्ध तो गधा भी घूमता है ।
टिप्पण- - १. स्वच्छन्द व्यक्ति कहता है कि- 'सिंह किसी का बन्धन नहीं सहता ?' और 'सिंह अपने बल से ही मृगेन्द्रता ( = पशुओं में आधिपत्य ) प्राप्त करता है ।' अर्थात् स्वच्छंद अपने को महान, अधिपति और किसी के भी आधिपत्य से विहीन समझता है । २. 'घोड़े के लगाम लगती है, सिंह के नहीं' - ऐसे मान के भाव से जीव उन्मत्त हो जाता है । अत: वह स्वच्छन्द होकर गुरुजन आदि के प्रति उद्वत बन जाता है और नैतिकता, नियम आदि का भंग करने लग जाता है । ३. उसे यह न भूलना चाहिये कि उत्तमता का स्वच्छन्दता से कोई संबन्ध नहीं है— वैसे ही स्वाधिपत्य से भी । जैसे गधे का मालिक न तो गधे को बाँधता है और न लगाम ही लगाता है । वह स्वच्छन्द विहार भी करता है । इससे न तो वह स्वाधीन ही बन जाता है और न अश्व जितनी श्रेष्ठता ही प्राप्त कर सकता है । ४. अनुशासन में रहना बन्धन नहीं है । किन्तु उत्थान का हेतु है ।
स्वच्छन्द क्या विमुक्त है ? -
इच्छाए कि ण बद्धो सो ? पयत्थेसु नच्चइ ? तुच्छत्थेण विणा दुक्खी, कुओ तस्स सततया ? ॥४९॥
वह इच्छा से बन्धा हुआ नहीं है ? वह पदार्थों (इन्द्रियों के विषयों) में क्यों नाचता है ? वह तुच्छ विषय के अभाव में दुःखी है तो उसकी स्वतन्त्रता कहाँ है ?